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नयधवलास हिदे कसायपाहुड़े
[ संजमासंजमलद्धी
$ ३९. जदो एत्थ अवदिगुणसेढी तदो तत्तिओ चेव गुणसेढिणिक्खेवो होइ त्ति सुत्तत्थो । पढमसमयगुणसेढिणिक्खेवादो हेट्ठा - एगट्ठिदीए उदयावलियन्भंतरं पविट्ठाए पुणो उवरि अण्णेगं द्विदिमन्भहियं काढूण गुणसेटिविण्णासमेसो करेदि त्ति एसो एदस्स भावत्थो ।
* एवं ट्ठिदिखंडएसु बहुए गदेसु तदो अधापवत्तसंजदासंजदो जायदे |
४०. एतदुक्तं भवति – संजमा संजमग्गहणपढमसमय पहुडि जाव अंतमुहुत्तचरिमसमयोचिताव पडिसमयमणंतगुणाए विसोहीए वड्ढमाणो ट्ठिदि-अणुभागखंडयट्ठदिबंधोसरणसहस्सा णि कुणमाणो तदवत्थाए एयंताणुवड्डिसंजदासंजदो त्ति भण्णदे । एहिं पुण तक्कालपरिसमत्तीए सत्थाणविसोहीए पदिदो अधापवत्त संजदासंज दववए सारिहो
$ ३९. यतः यहाँ पर अवस्थित गुणश्रेणि है अतः उतना ही गुणश्रेणिनिक्षेप होता है। यह इस सूत्र का अर्थ है । प्रथम समयके गुणश्रेणिनिक्षेपमेंसे नीचे एक स्थितिके उदयावलिके भीतर प्रविष्ट होने पर पुनः ऊपर अन्य एक स्थितिको अधिक करके यह जीव गुणश्रेणि विन्यास करता है यह इस सूत्र का भावार्थ है ।
विशेषार्थ – यहाँ संयमासंयमभावको प्राप्त हुए जीबके संयमासंयमरूप परिणामोंके साथ एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके निमित्तसे जो गुणश्रेणि रचना प्रारम्भ होती है वह एक तो उयावलि बाहर उपरितन समय से प्रारम्भ होती है । दूसरे वह अवस्थितस्वरूप होती है, इसलिए प्रत्येक समय में अधस्तन स्थितिके गलनेसे जैसे-जैसे उदयावलिसे उपरितन एक-एक स्थिति उदद्यावलिमें प्रवेश करती है वैसे-वैसे प्रत्येक समय के गुणश्रेणिशीर्ष से उपरिम प्रत्येक स्थिति गुणश्रेणिविन्यासको प्राप्त होती रहती है । जैसे अन्यत्र गुणश्रेणि आयाम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। इतना अवश्य है कि यह गुण-आयाम अवस्थितस्वरूप है । यद्यपि संयमासंयम गुणका माहात्म्य ही ऐसा है। कि इस गुण प्राप्त होने पर नियमसे अवस्थित गुणश्रेणिका प्रारम्भ हो जाता है | परन्तु यहाँ पर एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके कालमें होनेवाला गुणश्रेणिनिक्षेप पूर्व- पूर्व समयकी अपेक्षा उत्तर-उत्तर समय में नियमसे असंख्यातगुणित समयप्रबद्धस्वरूप होता है । यह तो पिछले समयकी अपेक्षा अगले समयकी बात हुई । एक ही समय में अधस्तन स्थिति से गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर उपरितन - उपरितन स्थितिमें असंख्यात गुणितक्रमसे द्रव्यका निक्षेप होता है। शेष कथन सुगम है।
* इस प्रकार बहुत स्थितिकाण्डकोंके जाने पर तत्पश्चात् यह जीव अधःप्रवृत्त संयतासंयत हो जाता है ।
§ ४०. उक्त कथनका यह तात्पर्य है - संयमासंयमके ग्रहणके प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तिम समय तक तो प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ हजारों स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्धापसरणों को करता हुआ उस अवस्थामें एकान्तानुवृद्धि संयतासंयत कहलाता है । परन्तु अब उस कालकी समाप्ति होने