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________________ गणिप्रणितः] श्रीयुगादिदेवस्तवः । (३५७) रविदिण सोवणदेविमंति कुसमुद्विभिमंतिय छिंदिय छिंदिय सत्तवार रंघिणि जह जंति अ । तिणि तेल मेलेवि तुल्ल मारिअ जण बाणि हिं मंतिअ तह पुण आदिनाह ! निसुणिअ तुह वाणिहिं ॥६॥ नवमीदिण गुरुदिन्नपवर हाहू नवमंतिइं त्रिगडू टंकणखार गयगवल्ली गद झत्तिइं । सैंधव हरडिलुद्दवचाहिंगू जह नासइ विसहरविष तह आदिदेव ! तुह नामिइ नासइ ॥७॥ अवचूरिः । "ॐ सर्गद्वारे तिहां छइ मांडवी कटमांडवी सोवन्नाची भिराडी रूपाची कुहाडी अमुकातणी रांघिणी तोडि घालि बडइ वेगि जः जः जः रांघिणी बडइ वेगि जः बापुसुवर्णदेव्याकी शक्ति फुरइ " गोमयगुंहलिकायां पादौ धारयित्वा दर्भमुष्टयावार ७ उंजित्वा तीक्ष्णकुठारिकयाऽप्रतोऽग्रतो वार ७ दर्भः छिद्यते रवी रांघिणी. निवर्तते ॥ एरंडितैल, तिल तैल, सरसवतैल, समभाग मेलिजे, बाण कुणहनई लागुं हुइ तेणई बाणइ ते तैल अभिमंत्री तिहां खरड कीजइ रांघिणिर्याति । अभिमंत्रण मन्त्र ए जाणिवो ॥ ६ ॥ 'हाहू नबहितनु स्सेफातनुरक्तनयः हसकेनी तई नस्म स्वाहा' रजोहरणेन २१ ऊंज्यते विषधरविषं यात्येव । वृश्चिकादीनामपि । सुंठि, पीपरि, मिरी, टंकणखार, धूंसउ ए सघलां समभागे मेली जिहां डंक हूई तिहां दीजई अथवा दसमई दुआरिं गदचारिइं सर्पविषं याति । सैंधव, हरडई, लोद्र, दक्षिणी हिंग, वज ए समभागि मेली पुरुष मूत्रिई, अथवा व्याघ्रमूत्रइं नास दीजइ सर्पविष जाइ, अनुक्तमपीदम् । कविष्टवटिका पानीयेन डके दीयते खजूरकविषं यात्येव ॥ ७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.090206
Book TitleJain Stotra Sandohe Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay
PublisherSarabhai Manilal Nawab
Publication Year1932
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size8 MB
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