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( ३५० )
जैनस्तोत्रसन्दोहे
देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ । तेण छाएम अप्पाणं मा मे हिंसंतु हिंसगा ||२५||
देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ ।
तेण छाएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु मूसगा ॥ २६॥ देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ ।
तेण छाएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु मुग्गला ॥ २७ ॥ 'देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ ।
तेण छाएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु गुज्झगा ॥ २८ ॥ पास सामि जो नमइ तिसंझं हल्लिसहि जम्मवि जाइ अवझं । कमठमहासुरक उवसग्गं झाडिअकोवं वंशं हंसं ॥ २८ ॥
[ अज्ञातकर्तृ
मुहि चंद हियइ जिणु मत्थइ पारिसनाथ । इणि मुद्दिहिं मुद्दिउ को फेडणइ समत्थ ? || ३०॥
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उर मुद्रि सिरि मुद्रि पाय मुद्र ।.......... इणि मुद्रि मुद्रिउ हिंडइ चारि समुद्र || ३१ ॥
संखिहि तूरिहि आहविअ सामिअ ! दिन्निअमुद्र । एअ दुलंघी कोइ न लंघइ पारसनत्थि मुद्र ॥ ३२॥ इति वैरोट्यास्तवः ।
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