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________________ (३४८) जैनस्तोत्रसन्दोहे [कर्तृनाम वंतर-गोणस जाई सत्तवडा अहिवडा य परडा य । ___ भमरसिराहि धिरोलिय घिरोलियाणं च नासेइ ॥७॥ हुंकारंतं च विसं अविसट्ट विसट्टपल्लवे चरइ । पारस नाम श्री ही पउमावइ धरणराएणं ॥ ८॥ सप्प ! विसप्प सरीसव ! धरणिं गच्छाहि जाहि रे तुरिअं । जंभिणि थंभिणि बंधणि मोहणि हुं फुटकारेणं ॥ ९॥ जो पढइ जो अ निसुणइ वइरुट्टामंतसंथवं पुरिसो। तस्सासेसविसाई कायं न फुसंति भत्तिजुत्तस्स ॥१०॥ घयगुलखीरविमिस्सं महुरं पउरं च जो बलिं देइ । साहूण भत्तपाणं वइरुट्टा तं परिक्खेइ ॥ ११ ॥ इअ धरणोरगदइआ अन्नेहि वि निअकुलेहि विउलेहिं । देवी करेउ रक्खं वइरुट्टा भविअलोअस्स ॥१२॥ नोगिणि नागलोइ वइरुट्टा सरावी जो तसु नाम लेइ तसु असुहनिवारी अजाणंदिलेण संदिटुं एहिं थंडिलिनाहिवसेवं ॥ १३ ॥ अहववसेवं नाहिउ सेवं जाहि जाहि आसीविसमंडल ! । नागिणिपुत्तह एह कहिजउ एह आण म न लंघिजउ॥१४॥ जीवउ नागिणि नागलोउ अहव अलंजरवाउ । जिणि अणाह सणाह किउ नेउरि छुटउ पाउ ॥१५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.090206
Book TitleJain Stotra Sandohe Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay
PublisherSarabhai Manilal Nawab
Publication Year1932
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size8 MB
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