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विनिर्मितम् ] चतुस्त्रिंशज्जिनातिशयस्तवनम्
( ८१ . )
पs पहिए पत्थे परिछिंदहकोण अन्नतिरिथसु । हत्थद्वियकंकणयं को पुण जोएह आरिसए | २७ ॥ पई दुट्ठा पाविट्ठा सव्वत्थवि दुक्खमेव पार्वति । भिज्जइ सच्चिय डाला जहिं चडइ कवेडओ देव ! ॥ २८ ॥ तिजयप्पहु ! तुह मयमंतरेण अचिरेण सिज्जइ न मुक्खो । नहु अंबाणं सद्धा पूरिज्जइ अंबिली आहिं ॥ २९ ॥ गाहिज्जतो अमयं व सुहयरं नाह ! तुह वरं धम्मं । गिण्हामि नेव अहयं मूढो निव्भग्ग सेहरओ ||३०|| तासचं ओहाणं फाडिज्जइ घेउरेहिं गल्लाई । पाइज्जं तो विघयं बुब्बुयइ सच्चयं अहवा ||३१|| किं बहुणा भणिणं ननं मग्गेमि देस चारितं । जेण भणिज्जइ सव्वे पया पविट्ठा उ हथिए ||३२|| इय कइवयओहाणएहिं थुणिओ जिनिंद ! भव्वाणं । संसारविरत्ताणं सामिय ! सुमयं ग्यं देसु || ३ ३ || इति ओहाणबंधेन स्तोत्रम् ||
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चतुस्त्रिंशज्जिनातिशयस्तवनम् ।
थोरसामि जिणवरिंदे अब्भुअभूएहिं अइसयगुणेहिं । तिविहा साहाविय कम्मक्खइआ सुरकया य ॥ १ ॥ देहे विमलसुगन्धं आमयपासेहिं वज्जिअं अरअं । रुहिरं गोक्खीराभं निव्विस्सं पंडुरं मंसं ॥ २ ॥
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