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(८०) . जैनस्तोत्रसन्दोहे [ पूर्वाचार्य
पडिवज्जिय तुह सीलं सक्केमि न पालिउं न छडेउँ । इय सामिय ! सच्चमिणं तं न य मरइ न मंचयं देइ ॥१६॥ उटुंति कहं ही संपइ तुह पहु ! जडा विवाएणं । सच्चमिणं ओहाणं ससएहिवि लहुडया लइया ॥१७॥ ... मुक्खत्थी सव्वजणो तुमं पुणो नाह ! देसि सिवसुक्खं । अक्खयमउलं तमिणं मिटुं विजेण विय दिटुं ॥१८॥ . नरयप्पाउग्गं बंधिऊण पुच्छामि होमि किं पायो । एयं मुंडियमुंडस्स तं खु नक्खत्तपुच्छणयं ॥१९।। इह लोए परिबद्धो होउं पहु ! नाहिउ भणिसु अहं । खीरं खंड मिटुं परलोयं केण पुण दिटुं ? ॥२०॥ तुह दिक्खं पडिवण्णो लजामि न नाह ! भिक्खभमणेणं । जइ नच्चणे पयट्टा ता किं घंधुट्टकरणेणं ? ॥२१॥ जइ नाह ! तुह मयाओ लब्भइ मुक्खं किमन्नतित्थीणं । जइ किर घयं सुगंधं किमागयं गुब्बरस्स तहिं ? ॥२२॥ कम्मयत्था तुह देसणाइ न लहंति नाह ! पडिबोहं । सच्चमिणं तं जइ मरइ चिल्लओ तो न वेकरइ ॥२३॥ तुह वयभंगा सव्वा वि गंतुं निरयं सिवं पयाहिंति । जाइस्सइ सग्गा नग्गखवणओ जइ परिविगुत्तो ॥२४॥ छज्जति तुज्झ मुणिणो चरणेण किं पुणोवि लद्धीहिं ? । वाईसइ मंकणिया किं पुण पयबद्धकिंकिणिया ॥२५॥ संसारदुक्खखिन्नो जणो तए वणियं च सिद्धिसुहं । इकं उम्माहायं बीयं पुण मोरसंलवियं ॥२६॥
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