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विनिर्मितम् ] श्रीजिनस्तोत्रम् (७९)
आजम्मं पालियसंजमेण गिण्हतएण भवसुक्खं । विकिणिओ एस मए सामिय ! बुडीए अरहट्टो ॥ ५ ॥ मुक्खत्थी अल्लीणो कुतित्थिए निवडिओ म्हि भवकूवे । सामिय ! सच्चमिणं तं चुणणगया चुंटिया आया ॥ ६ ॥ बीहेमि तेसिमिण्हि दट्टणं अइसए पसिद्धे वि । वलिकोयं तं सुन्नं जं सुन्नं तोडए कण्णं ॥ ७ ॥ सयमेवज्जिऊण दुक्खमन्नस्स देसि पुण आलं । सूयरि खद्धो वाडो भग्गं पुण पड्डयस्स मुहं ॥ ८ ॥ जइ नथिह चक्कित्तं तहवि मह कुणसु सिद्धिसंबंधं । नवि थकिस्सइ सामिय! वीवाहो कच्चरीहि विणा ॥ ९ ॥ भावविहूणस्स महं चरणेण न नाह ! होसए सुद्धी । जहिं वसइ नग्गखवणो परियट्टो तत्थ किं कुणइ ? ॥१०॥ करिय तहावि हु पावं गुरुणो आलोइउं न सकेमि । सामिय ! अहमिखद्धा विज्जो ससुरुत्ति तं सच्चं ॥११॥ गुरुमोहमोहिए मह मणम्मि लग्गइ न तुज्झ उवएसो । चिक्कणघडए सामिय ! ढलिऊणं पाणियं जाइ ॥१२॥ कुमयमइभावियाणं सुद्धो धम्मो न तुज्झ पडिहाइ। . पक्काणं भंडाणं किं पुण कण्णाई लग्गति ? ॥१३॥ जे केवि दुब्बियडा तुह वयणं अन्नहा परूविति । ते घोडयपुच्छब्व होडयति कल्होडयं नाह ! ॥ १४ ॥ तुह वयणे सिढिले पण्णवेमि वयणेहिं नाह ! महुरेहिं । जो मरइ गुलणं चिय तस्स विसं दिज्जए कीस ? ॥१५॥
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