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________________ राजस्थान प्रदेश का जैन समाज /447 बागड़ एवं मेवाड़ प्रदेश बागड़ प्रदेश:- बागड़ प्रदेश राजस्थान का महत्वपूर्ण अंग है जिसकी सीमायें राजस्थान को गुजरात प्रदेश से भिन्न करती हैं। यही नहीं इस प्रदेश की सभ्यता एवं संस्कृति, बोलचाल एवं रहन-सहन में गुजरात तथा राजस्थान दोनों का सम्मिश्रण है । राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ राज्यों का सम्मिलित क्षेत्र बागड़ कहलाता है। इन तीनों ही राज्यों के शासक जैन धर्म से प्रभावित रहे और अपने-अपने राज्य में जैनधर्म एवं साहित्य के विकास में पूर्ण सहयोग एवं समर्थन दिया । जैन साधुओं, भट्टारकों एवं मुनियों का बराबर विहार होता था। मंदिरों का निर्माण, प्रतिष्ठा-महोत्सव का आयोजन तथा साहित्य निर्माण से जन-जन में धार्मिक निष्ठा एवं कर्तव्य पालन के भाव जाग्रत होते रहे। बागड़ प्रदेश में डूंगरपुर का राज्य सबसे बड़ा राज्य था । उदयपुर के ऊण्डा मंदिर में 14 वीं शताब्दि तक की प्रतिमायें है जिनकी प्रतिष्ठा बागड़ प्रदेश में ही हुई थी । बागड़ प्रदेश का सबसे प्राचीन उल्लेख 994 ई. के मूर्तिलेख से होता है । डूंगरपुर बांगड़ प्रदेश का केन्द्र रहा तथा सैकड़ों वर्षों तक यह नगर दि. जैन भट्टारकों का प्रमुख स्थान बना रहा । भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य पद्मनंदि आचार्य बनते ही बागड़ एवं गुजरात में बिहार करने लगे और इसके पश्चात् उन्हें संवत् 1385 पौष सुदी सप्तमी की शुभवेला में गुजरात एवं बागड़ प्रदेश का भट्टारक बना दिया गया। इसके पश्चात् 70 से भी अधिक वर्षों तक ये बागड़ प्रदेश में अहिंसा एवं सत्य का प्रचार करते डूंगरपुर में दूसरे बड़े एवं प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक सकलकीर्ति हुये इन्होंने अपने जबर्दस्त व्यक्तित्व से कितने ही मंदिरों का निर्माण कराया, प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया तथा सैकड़ों मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराकर बागड़ प्रदेश में ही नहीं किन्तु समस्त देश में सांस्कृतिक जागृति उत्पन्न की । भ. सकलकीर्ति के पश्चात् 200 वर्ष तक बागड़ प्रदेश भट्टारकों का प्रमुख प्रदेश माना जाता रहा और डूंगरपुर, सागवाड़ा, गलियाकोट जैसे नगर इनके प्रमुख स्थान बन गये। सागवाड़ा में नगर के बाजार में जो विशाल जैन मंदिर है एवं उनमें प्रतिष्ठापित विशाल जैन मूर्तियां इस प्रदेश में जैन धर्म के जबर्दस्त प्रभाव की ओर स्पष्ट संकेत है। भ. भुवनकीर्ति, सोमकीर्ति (संवत् 1526 से 40 तक) ज्ञानभूषण (1530-57 तक) विजयकीर्ति (1557-73 तक) भशुभचन्द्र (1573 से 1613 तक) भ. रत्नकीर्ति (सं. 1600से 1656 तक) भट्टारक वीरचन्द्र जैसे कितने ही भट्टारकों ने इस प्रदेश में विहार करके जैनधर्म एवं साहित्य के विकास में अपना प्रमुख योगदान दिया है। डूंगरपुर से लगभग साढे आठ मी. ऊपर गांव के श्रेयांसनाथ के मंदिर में एक शिलालेख अंकित है जिसके अनुसार सन् 1904 में डूंगरपुर रावल प्रतापसिंह के मंत्री नरसिंह जातीय प्रल्हाद ने दि. जैन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई थी।
SR No.090204
Book TitleJain Samaj ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages699
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Culture
File Size16 MB
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