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________________ सारांश-करने के लिए कोई कार्य शेष नहीं रह गया इसलिए हाथ नीचे को लटका दिये हैं अर्थात् सब पुरुषार्थ पूर्ण हो गये हैं। गमन के द्वारा प्राप्त करने के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया है इसलिए एक स्थान पर ही खड़े हो गये हैं अर्थात् तीन लोक में पर्यटन कर लिया है। नेत्रों द्वारा देखने के लिए कोई पदार्थ शेष नहीं रह गया है इसलिए नासाग्रदृष्टि को कर लिया है अर्थात समस्त विश्व को देख लिया है। कर्णों द्वारा सुनने के लिए कोई पदार्थ शेष नहीं रह गया है इसलिए एकान्त स्थान को प्राप्त कर लिया है अर्थात् एकान्त प्रदेश में ध्यान लगाया है। खाने-पीने की इच्छा नहीं है इसलिए रसना को अन्दर कर लिया है या वश में कर लिया है। कहने के लिए कुछ शेष नहीं रह गया है इसलिए मौनव्रत धारण कर लिया है। धन-सम्पत्ति आदि की कोई इच्छा नहीं है इसलिए नग्नता (दिगम्बरल्य) को धारण कर लिया है। जीवन्मुक्त (अइन्द्र) अवस्था में स्वाभावित मौन्दर्य होने से आभूपण तथा वस्त्रों की आवश्यकता नहीं है। आप के सर्वांगों में साम्यरूप होने से फूल-माला या फूलों को आवश्यकता नहीं है। शत्रुओं एवं विरोधियों द्वारा आक्रमण या पराजय की शंका न होने से शस्त्र तथा अस्त्र की आवश्यकता नहीं है। स्वाभाविक कान्ति होने से कोई रंग की आवश्यकता नहीं है। सारांश यह है कि दिगम्बरत्व (भौतिक हीनता) होने से पूर्ति में किसी भी भौतिक पदार्थ की किसी भी प्रकार से आवश्यकता नहीं है। यद्यपि वह मूर्ति बोलती नहीं है तथापि आत्म-कल्याण और त्यागपूर्वक विश्व-शान्ति का शुभ सन्देश प्रदान करती है। इस प्रकार इतिहास से मूर्तिपूजा का महत्त्व सिद्ध होता है। पुरातत्त्व की दृष्टि से मूर्तिपूजा का महत्त्व भारतीय पुरातत्त्व से वास्तुकला एवं स्थापत्य कला का महत्त्व पुरातत्त्वग्रन्थों से प्रसिद्ध ही है। भारतीय पुरातत्त्व का प्रमुख अंग जैन पुरातत्त्व से भी उक्त कलाओं का महत्त्व सिद्ध होता है। गुफ़ा निर्माणकला, मन्दिरकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला-इनके भेद से वास्तुकला पाँच प्रकार की होती है। मन्दिरकला तथा मूर्तिकला को स्थापत्यकला भी कहते हैं। भारतीय स्थापत्यकला के विकास में जैन स्थापत्यकला ने पूर्ण सहयोग प्रदान किया है। उदाहरण के लिए भारतीय जैन मूर्तिकला के विषय में यहाँ पर वर्णन संक्षिप्त रीति से किया जाता है-भारत में चौबीस तीर्थंकरों को ध्यानस्थ सुन्दर मूर्तियाँ अधिकांश पायी जाती हैं जो खड्गासन तथा पद्मासन अवस्था में स्थित होकर वीतरागता तथा शान्ति का सन्देश देती हैं। वे मूर्तियाँ पाषाण एवं धातुओं से कलापूर्ण निर्मित की गयी हैं। दक्षिण भारत में ऋषभदेव के सुपुत्र भरत चक्रवर्ती तथा बाहुबलि स्वामी की बहुत प्राचीन मूर्तियां विद्यमान हैं। श्री बाहुबलि स्वामी को मात का वर्णन इतिहास के प्रकरण में किया जन पूजा-काव्य का उद्भव और विकास :: ४.१
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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