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________________ गयी है कि ये वही भगवान महावीर हैं तो उस मूर्ति की पूज्यता भगवान वीर की तरह ही होती रहेगी। यह विषय ध्यान देने योग्य है कि इसी स्थापना निक्षेप के बल पर ही विश्व में मूर्तिपूजा का आविष्कार हुआ है, हो रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा। इसमें स्थापना (प्रतिष्ठा) का ही महत्व है। (3) द्रव्यमूर्ति-भविष्य में अर्हन्त पद को प्राप्त करने के लिए सम्मुख महात्मा को वर्तमान में मूर्ति बनाना द्रव्यमूर्ति है अथवा भूतकाल में अर्हन्त परमेष्ठी पद को प्राप्त हुए तीर्थंकर की वर्तमान में मूर्ति-रचना करना द्रव्यमूर्ति कही जाती है। (4) क्षेत्र-मूर्ति-जिस क्षेत्र से अर्हन्त परमेष्ठी, सिद्ध पद को प्राप्त हुए हैं उस क्षेत्र पर उनकी मूर्ति स्थापित करना क्षेत्रमूर्ति है, अथवा जिन क्षेत्रों की साकार मूर्ति निर्मित करना अथवा उन महात्माओं की साकार मूर्ति स्थापित करना क्षेत्र पूर्ति है। 5) काल-गर्दि-निस मास में सोई बीरामला न उपासक सम्यग्दृष्टि मानव अहंन्त आदि पदों को प्राप्त हुए हैं उस काल में उनकी मूर्ति स्थापित करना कालमूर्ति है अथवा जिस काल में जिन तीर्थंकरों के पंच कल्याण महोत्सव सम्पन्न हुए हैं उन-उन कालों में उनकी प्रतिमा स्थापित करना, अथवा उस काल के क्षेत्रों की मूर्ति स्थापित करना कालमूर्ति है। (6) भाव-मूर्ति-पूज्य-पूजक भाव का ज्ञाता जो सम्यग्दृष्टि मानव वर्तमान में अहंन्त सिद्ध परमात्मा के गुणकीर्तन में उपयोग लगाता है अथवा उनके आत्मगुणों का स्वकीय आत्मा में ध्यान लगाता है, उसको भावमूर्ति कहते हैं। उक्त मूर्ति के भेदों से यह सिद्ध होता है कि मूर्ति प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दशा में होती है, उसके बिना मानव या प्राणीमात्र का लौकिक तथा पारमार्थिक कार्य सिद्ध नहीं होता है। द्वितीय स्थापना निक्षेप को अपेक्षा मूर्तिपूजा की व्यापकता विश्व में सिद्ध होती है। यहाँ कोई व्यक्ति प्रश्न कर सकता है कि मूर्तिपूजा करना तो पाषाण धातु आदि जड़ की पूजा करना है उससे कोई लाभ नहीं हो सकता। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि केवल पाषाण धातु आदि की मूर्ति बनाकर पूजना जिसका कोई लक्ष्य न हो, कोई मूल पदार्थ की स्थापना न की गयी हो, तो इसको हम भी कहते हैं कि यह केवल जड़ की पूजा है, इसले कोई लाभ नहीं है। परन्तु जो मूर्ति, मूल पदार्थ (मूर्तमान) सर्वश्रेष्ठ परमात्मा या गुरु की विधिपूर्वक बनायी गयी हो, उसकी मन्त्रों द्वारा प्रतिष्ठा या स्थापना की गयी हो, जिसकी पूजा करने से आत्म-शुद्धि का लक्ष्य सिद्ध होता हो और दोषों को त्यागने की शिक्षा मिलती हो, वह मूर्तिपूजा उपयोगी है, वह जड़ की पूजा नहीं है। मूर्ति के माध्यम से मूर्तमान कं गुणों का स्मरण करना मूर्तिपूजा का ध्येय है। इसी विषय को धर्मग्रन्थों में युक्ति-पूर्वक कहा गया है जैन पूजा-काव्य का उद्भव और विकास :
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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