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________________ दूसरी युक्ति यह है कि भगवान महावीर का कहना है जो हम कहते वह ही सत्य है, इस वाक्य को मत मानो, किन्तु जो स्वयं सत्य सिद्ध है स्वाभाविक वस्तु स्वरूप है वह हम कहते हैं, इस वाक्य को मान लो तो वीतराग अर्हन्त के वचनों में सत्यता सिद्ध हो जाती हैं। तीन रत्न जो पूर्व में कहे गये हैं उनमें तृतीय रत्न सत्यार्थ गुरु है, उसकी परिभाषा पर ध्यान दिया जाए (1) स्पर्शन, ( 2 ) रसना, (3) नासिका, ( 4 ) नेत्र, ( 5 ) कर्ण, इन पंच इन्द्रियों के विषयभोगों से जो विरक्त हो, ( 1 ) हिंसा, ( 2 ) असत्य, ( 3 ) चौर्य या अपहरण, (1) कुशील या व्यभिचार, ( 5 ) परिग्रह। इन पत्र पापों का परित्यागी हो, जो अन्तरंग तथा बहिरंग परिग्रह या तीन माया आदि के जाडम्बर से रहित हो, जो कुटुम्ब के वातावरण से निश्चिन्त हो, एवं जो ज्ञानाभ्यास ध्यानयोग और अन्तरंग, बहिरंग रूप तपश्चरण में सर्वदा दत्तचित्त रहता हो यह वास्तविक गुरु कहा जाता है। इनको दूसरे शब्दों में ऋषि, यति, मुनि, भिक्षु, तापस, तपस्वी, संयमी, योगी, वर्णी, आचार्य, उपाध्याय और साधु भी कहते हैं। ये महात्मा स्वपरहितकारी कर्तव्य पथ पर स्वयं चलते और अन्य मानवों को चलाते हैं । इस प्रकार सत्यार्थ देव ( परमात्मा), सत्यार्थ शास्त्र (दिव्यवाणी), तथा वास्तविक गुरु (तपस्वी सन्त ) - ये तीन शुभ पूज्यरत्न, जैन पूजा-विधान के आधार (आश्रय ) या निमित्त हैं। प्रत्येक गृहस्थमानव को प्रतिदिन उक्त पूज्यरत्नत्रय का अर्चन कर आत्मा को पवित्र करना चाहिए। जैनदर्शन में 'देवशास्त्रगुरु-पूजा' इस नाम से प्रसिद्ध महापूजा कही जाती है, यह इसकी प्रथम विशेषता है। दूसरी विशेषता यह है कि यह देवशास्त्र गुरु पूजन सामान्य पूजन है, इसमें कोई विशेष व्यक्ति महात्मा के नाम से पूजन या गुण कीर्तन किया गया नहीं है इसलिए इसमें सम्पूर्ण वीतराग परमदेवों (1. अर्हन्त. 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय, 5. साधु, 6. जिनधर्म, 7. जिनवाणी या जिनशास्त्र, 8. चैत्य ( जिन प्रतिमा), 9. जिन चैत्यालय) का अन्तर्भाव हो जाता है तथा नवदेवों की समस्त पूजाओं का अन्तर्भाव हो जाता है। तृतीय विशेषता इस महापूजन में यह है कि 'देवशास्त्रगुरु' ये तीन पूज्यरत्नत्रय कहे जाते हैं, इनको शुभरत्नत्रय भी कहते हैं । ये शुभरत्नत्रय, आध्यात्मिक रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के परम कारण हैं जो आध्यात्मिक रत्नत्रय मुक्ति या परमात्मा पद की प्राप्ति के विशेष कारण हैं। इस विषय में आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में अध्याय प्रथम में कहा है- 'सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : " अर्थात् सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र ये तीन रत्न समीकरण रूप से मोक्ष का मार्ग है। कविवर श्री धानतराय ने स्वरचित हिन्दी की देवशास्त्र-गुरु-पूजन में स्पष्ट कथन 1. तस्वार्थसूत्र सं.पं. मोहनलाल शास्त्री, जबलपुर सन् 1985 अ. 1 सूत्र 48 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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