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________________ ; वृन्दावन कवि कृत वासुपूज्य तीर्थकर पूजा - काव्य में उपासना का प्रभाव : नित वासववन्दत पापनिकन्दत, वासुपूज्य ब्रतब्रह्मपती । भवसंकल खण्डित आनन्दमण्डित. जै जै जै जैवन्त जती ॥ वासुपूज्य पद सार, जजों दरवविधि भावसां । सो पावै सुखसार भुक्ति मुक्ति को जो परम ॥ भगवत्पूजा करनेवाले उपासक की हिंसा, असत्य, राग, द्वेष, मोह, विषय, तृष्णा आदि पापों से निवृत्ति होती है, साथ ही पूजाकार्य में प्रवृत्ति होती है। पूज्य पुरुषों के या परमात्मा के गुणों में अनुराग स्थिर रहता है अतएव आत्मशुद्धि अवश्य होती है | पूजा करने के पश्चात् शान्तिपाठ में पूजा का लक्ष्य तथा फल दर्शाया गया पूजा - काव्यों का लक्ष्य : I द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं भावस्य शुद्धिमधिकामधिगन्तुकामः । आलम्बनानि विविधान्प्रयतम्ध्यवल्गन् भूतार्थ यज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम् ॥ भावसौन्दर्य - हे भगवन्! हम शक्ति के अनुकूल द्रव्यों की शुद्धि को प्राप्त कर आपके समक्ष पूजन हेतु खड़े हुए हैं परन्तु भाव (आत्म-परिणामों की शुद्धि अधिक-से-अधिक चाहते हैं। इसलिए अनेक निमित्तों का आश्रय लेकर सावधानतया महापुरुष के पूजन को कर रहा हूँ । अन्त में भक्त अपना लक्ष्य (प्रयोजन) व्यक्त करता है : तब पद मेरे हिय में मम हिय तेरे पुनीत चरणों में । तब लों लीन रहे प्रभु, जब ली प्राप्ति न मुक्तिपद की हां ॥ पूजा साहित्य में सर्वत्र पूजा का प्रयोजन, शुभकामना प्रार्थना और फल दर्शाया गया है। इसलिए पूजाकर्म महत्त्वपूर्ण आदरणीय, आचरणीय और फलप्रद है । पूजा कर्तव्य का विशेष फलः उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ भेकः स्वर्गेऽमरोजातः पूजाभावान् जिनस्य च। कुष्टादिरांगहीनोभूत्, श्रीपालीनृपतिः खनु ॥ पूजया लभ्यते स्वर्गः पूज्यो भवति पूजया । ऋद्धिवृद्धिकरी पूजा पूजा सर्वार्थसाधनी ॥ 4. ज्ञानपीठ पूजांजलि, पु. पृ. 360 2. आजेलकुमार मुनि सर्वोपयोगी श्लोक वह IN 366: जेन पूजा काव्य एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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