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________________ A : में करना अर्थात् सम्पुटित करों को वाम ओर से दक्षिण की ओर घुमाना पश्चात् प्रणाम करना मुनिराजों के लिए इन छह कृतिकर्म करते समय अष्ट द्रव्यों की आवश्यकता नहीं होती। ये साधुश्रेष्ठ आत्मशुद्धि के लिए कृतिकमं करते हैं, लोकेषणा, आत्मसम्मान और यशप्राप्ति के लिए नहीं करते हैं तथा आहार, विहार और निहार करते हुए यथासम्भव होनेवाले दोषों की आलोचना भी कृतिकर्म से करते हैं। पूर्वोक्त छह कृतिकर्मों को साधुवर पूर्ण विधि से और गृहस्थ या श्रावक एकदेश (आंशिक) रूप से सफल बनाते हैं। दोनों के लिए कृतिकर्म का श्रेष्ठ महत्त्व है। कृतिकर्म ( पूजाकर्म ) की अन्य प्रकार से व्याख्या : मूलाचारग्रन्थ में कृतिकर्म के अपेक्षाकृत चार पर्यायशब्द कहे गये हैं : (1) कृतिकर्म (2) चितिकर्म, (3) पूजाकर्म, (4) विनयकर्म | ( 1 ) जिस वर्णोच्चारणरूप वाचनिक क्रिया के करने से, आत्म-परिणामों की पवित्रतारूप मानसिक क्रिया के करने से और नमस्कारादि रूप कायिक क्रिया के करने से, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का छेदन होता है। उसे कृतिकर्म कहते हैं। संस्कृत में विग्रह इस प्रकार होता है- कृत्यते-छिद्यते अष्टकमणि येन कर्मणा (क्रिया) इति कृतिकर्म | ( 2 ) यह पूजाकर्म पुण्यसंचय का कारण है अतः इसको चितिकर्म कहते हैं। (3) इस कर्म में परमदेव शास्त्रगुरु, तीर्थकर एवं परमेष्ठी देवों का पूजन किया जाता है इसलिए इसको पूजाकर्म कहते हैं। (4) इस क्रिया के द्वारा पूज्य परमदेव शास्त्र गुरु में पूजक द्वारा श्रेष्ठ विनय प्रकाशित होती है इसलिए इसको विनय कर्म कहते हैं। संस्कृत में इसका विग्रह - विनीयते निराक्रियते कर्माष्टकं येन इति विनयकर्म । तात्पर्य यह कि जिस कृतिकर्म के द्वारा अशुभ कर्मों का क्षय होता और पुण्यकर्म का संचय होता हैं, विनयगुण का प्रधान कारण पूजाकर्म है इसलिए यति-वर्ग की और नागरिक गृहस्थों को सावधानी से अपनी शक्ति के अनुसार करना आवश्यक है । मूलाचार का प्रमाण उक्त विषय पर : किदिनम्मं चिदियम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । कादव्वं केण कस्स व कधेव कर्हि व कविखुत्तों मूलाचार में कृतिकर्म के व्याख्यान के प्रसंग में विनयकर्म का स्पष्टीकरण किया गया है। वह इस प्रकार है - ( 1 ) लोकानुवृत्तिविनयकर्म दो प्रकार का है(1) श्रेष्ठता अथवा श्रेष्ठयागी धर्मात्मा के आने पर आसन से उठना, ४. आ. बहर-स, कैलाशयन्द्रशास्त्र प्र - भारतीय ज्ञानपीठ, टेहली, 1981 पूलाचार . +28. श्लोक 975 अधिकार जैन पूजा काव्यों का महत्त्व ॥ १०॥
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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