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________________ नवम अध्याय जैन पूजा-काव्यों का महत्त्व जैनदर्शन में दो प्रकार के मार्ग कहे गये हैं जो आत्मशुद्धि के लिए आवश्यक हैं, (1) निवृत्ति माग, (2) प्रवृत्ति मार्ग। निवृत्ति मार्ग में राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों की आत्मा से निवृत्ति (त्याग) की जाती है और प्रति माग में शुभ में आचरण किया जाता है। यदि शेषों (विकारों) की निवृत्ति के साथ शुभकायं में प्रवृत्ति (आचरण) होती है तो शुभप्रवृत्ति का होना प्रयोजनभूत (सफल) है। जैसे कोई व्यक्ति वैभव की इच्छा के बिना भगवसूजा कर रहा है तो उसकी पूजाप्रवृत्ति सार्थक है। यदि दोषों या लोभ-लालच आदि विकारों के रहते हुए कोई व्यक्ति भगवत्पूजा, स्तबन या मन्त्र की जाप कर रहा है तो उसकी पूजा, स्तवन आदि धार्मिक क्रिया सार्थक या प्रयोजनभूत नहीं हैं। कारण कि बाह्यप्रवृत्ति करते हुए भी मानव की अन्तरंग निवृत्ति नहीं है। जैनदर्शन में पूजारूप प्रवृत्ति जो दशाया गया है वह अन्तरंग में विकृतभावों की निवृत्ति के साथ दर्शाया गया है। इस मार्ग को पूजाकर्म या कृतिकर्म के नाम से घोषित किया गया है जो मुनिराज और नागरिक गृहस्थ दोनों के लिए उपयोगी है, कृतिकर्म के छह प्रकार कहे गये हैं : स्वाधीनतापरीतिः, त्रयी निषद्या त्रिवारमावर्ताः। द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम् ॥' ___ सारांश-कृतिकर्म छह प्रकार कहा गया है-(1) कृतिकम में बन्दना करनेवाले की स्वाधीनता, (2) तीन प्रदक्षिणा करना, (3) तीन कायोत्सर्ग करना, अर्धात् खड़े होकर नब बार महामन्त्र का पाठ करना, (4 तीन निषद्या अर्थात् कायोत्सर्ग के पश्चात् पद्यासन दशा में आलोचना करना, चैत्यभक्ति आदि करना, (5) चारशिरानति प्रणाम) चारों दिशाओं में करना, i) 12 आवर्त चार दिशाओं 1. देवबन्दना टे. संग्रह . सं. मिलमति माता जी. का.- शान्तिबारसगर श्री महागर जी, 19il ई., पृ. ।। 3400 :: जैन पूजा काय : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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