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________________ समन्तभद्राचार्य ने स्वयंभू स्तोत्र में भगवान मल्लिनाथ की स्तुति करते हुए तीर्थ शब्द का प्रयोग किया है यस्य समन्ताज्जिन- शिशिरांशोः शिष्यक-साधुग्रहविभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जननसमुद्रत्रासित सत्त्वोत्तरणपथोऽगम् ॥ तात्पर्य - जिन मल्लिनाथ जिनेन्द्र रूपी चन्द्रमा के चारों ओर शिष्य साधु रूप ताराओं का विभव विद्यमान था और जिनका उपदेश तीर्थ भी संसार समुद्र से भयभीत प्राणियों को पार उतरने का प्रधान मार्ग था उन भगवान मल्लिनाथ की शरण को मैं प्राप्त हुआ हूँ । तीर्थं करोतीति तीर्थंकरः धर्मती प्रवर्तक ( आद्य प्रणेता) | = ( षट्खण्डागम भाग 8, पृष्ठ 91 ) हस्तिनापुर के श्रेयांसनृप को आदि पुराण में 'दानतीर्थप्रवर्तक' कहा गया है तथा मोक्षप्राप्ति का कारण रत्नत्रय को (सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र को ) रत्नत्रयतीर्थ कहा गया हैं । तीर्थों का मूल्यांकन , ( आदि पुराण अ. 2, श्लोक 59 ) आवश्यक नियुक्ति में तीर्थ शब्द की व्याख्या - ( 1 ) मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका, इस चतुर्विध संघ को तीर्थ कहते हैं। ( 2 ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - इन चार वर्णों को तीर्थ कहते हैं। ( 3 ) ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, उदासीनाश्रम (नैष्ठिकाश्रम), भिक्षुकाश्रम ( संयासाश्रम ) - इन चार आश्रमों को तीर्थ कहते हैं । ( 4 ) चार ज्ञानधारी प्रधानगणधर को तीर्थ कहते हैं। (5) गणवर (अर्हन्तजिनेन्द्र ) को तीर्थ कहते हैं । " सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते । कल्याणकलिते पुण्ये, ध्यानसिद्धिः प्रजायते॥' तात्पर्य - त्रेसठ शलाका महापुरुषों से प्रभावित, कल्याण का स्थान पवित्र सिद्धक्षेत्र ऐसे महान तोर्थ कर ध्यान करने से परम पद तथा स्वर्ग आदि वैभव की सिद्धि होती है। 1. स्वयंभूतांत्र सं. पन्नालाल साहित्याचार्य प्र. शान्तिवीरनगर महावीर जो 110659 पृ. 1211 ५. भारत के दि. जैनतीथं सं. बलभद्र न्याचतीथं प्र दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई प्र. भा. सन् 1947 प्रस्तावना. पृ. 11, 12, 13 9. शुभचन्द्राधार्य कृत ज्ञानार्णव सं. पन्नालाल काकलीवाल, प्र. श्रीराजचन्द्र आश्रम अगास ( गुणजत). वि.सं. 2017, पृ. 269 268 :: जैन पूजा काव्य एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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