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हे भगवान! आप निर्दोष हैं। इसलिए आप के द्वारा उपदिष्ट वचन युक्ति तथा प्रमाणशास्त्रों से विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं। आपने जिन सिद्धान्तों एवं पूजातत्त्वों का प्रतिपादन किया है, उनमें कोई विरोध नहीं है, वे लोकोपकारी हैं नीतिपूर्ण हैं, अनुभवसिद्ध हैं, इसीलिए आप का इष्ट सिद्धान्त प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणों से विरोध को प्राप्त नहीं होता।
जैनधर्म प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता पुराण, इतिहास, पुरातत्त्व और अभिलेखों से सिद्ध है।
भगवान ऋषभदेव की प्राचीनता
__ जैनधर्म में चौदह कुलकरों के पश्चात् जिन महापुरुषों ने कर्मभूमि को सभ्यता के युग में धर्मोपदेश एवं अपने चरित्र द्वारा हेय-उपादेय तत्त्व का भेद सिखाया, ऐसे विशेष गणनीय महापुरुषों की संख्या 63 है। इन्हें श्रेष्ठ शल्लकापुरुष' भी कहा जाता
इन श्रेष्ठ शलाकापुरुषों में सर्व प्रथम आद्यतीर्थंकर वृषभनाथ हैं, जिन्होंने इस युग में जैनधर्म का प्रवर्तन किया।
पिता नाभिराज के निधन के पश्चात् वे राजसिंहासन पर बैठे और उन्होंने आजीविका के छह साधनों-कृषि, असि, मसि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या की विशेष रूप से व्यवस्था की। देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया।
जैन साहित्य में ऋषभदेव के जीवन व तपस्या का तथा केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मोपदेश का विस्तृत वर्णन हैं। ऋषभदेव के काल का अनुमान लगाना कठिन है, उनके काल की दूरी का वर्णन जैन पुराण, सागरों के प्रमाण से करते हैं। सौभाग्य से ऋपमदेव का जीवन चरित जैन साहित्य में ही नहीं, प्रत्युत वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है। भागवतपुराण के पंचम स्कन्ध के प्रथम छह अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन वृत्त व तपश्चरण का विस्तृत वृत्तान्त वर्णित है, जो सभी मुख्य-मुख्य बातों में जैन पुराणों से मिलता है। प्रथम तीर्थंकर और वातरशना मुनि भगवत पुराण में कहा गया है कि
“बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियाँचकोर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां धान्दयितकामो
वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लपातन्वावततार ।' "हे विष्णुदल परीक्षित : यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने
1. भागवतपुराण, 54320
28 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन