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________________ 1 : (प्राण- सुरक्षा)- इन चार प्रकार के दानों को देता है वह दान के फल से त्रिलोक में सारभूत उत्तम सुखों को भोगता है I जैन पूजा का उद्भव और विकास ★ 'जैन पूजा' का व्याकरण की दृष्टि से व्युत्पत्तिलभ्य विवेचन इस प्रकार है - "जयति ज्ञानावरणमोहादिशत्रून् इति जिनः जिनमधिकृत्य प्रणीतं पूजाविधनमिति जैन पूजा-विधानं" अर्थात् वे तीर्थंकर ( जिनेन्द्र ) जिन्होंने आत्मपुरुषार्थ से ज्ञानावरण, मोह, राग-द्वेष, निर्बलता, क्रोध, मान आदि विकारों को जीत लिया है, वे 'जिन' या जिनेन्द्र कहे जाते हैं, और जिनेन्द्र के विषय में सर्व प्रथम जो पूजा-विधान आदि सिद्धान्तों अथवा अनुष्ठानों का उपदेश दिया गया है वह जैन पूजा-विधान का आद्य उद्भव स्थान तथा प्रथम समय है अहिंसा, स्याद्वाद, सत्य, अपरिग्रहबाद आदि मौलिक सिद्धान्तों का तथा पूजा-विधान का प्रथम उद्भव स्थान जिन (अर्हन्त) को ही क्यों कहा गया है? इस प्रश्न का उत्तर वस्तुतः इस प्रकार प्रतीत होता है कि जिस मानव ने आत्मपौरुष से ( 1 ) ज्ञानावरण (ज्ञान को आवरण करनेवाला कर्म या दोष ), ( 2 ) दर्शनावरण (वस्तुदर्शन का आवरण करनेवाला कमी), ( 3 ) मोहनीय ( आत्मा, परमात्मा आदि तत्त्वों को भुलाकर, अतत्त्वों पर श्रद्धा करानेवाला रागद्वेष, मोह, माया, क्रोध, लोभ आदिरूप कर्म ) | ( 1 ) अन्तराय (आत्मशक्ति का नाशक कर्म), इन चार महानू घातिकर्म या महादोषों पर विजय प्राप्त कर क्रमशः केवल ज्ञान (विशदविश्वज्ञान), केवलदर्शन (विशद विश्वतत्त्वदर्शन), अक्षयसुख या शान्ति और अक्षय आत्मवल प्राप्त कर लिया है, उसको जिन-जिनेन्द्र, अरिहन्त, वीतराग, सर्वज्ञ, केवली, धर्मचक्र प्रवर्तक, तीर्थंकर, तीर्थकर, तीर्थकृत्, दिव्यवाक्पति' – इन नामों से अलंकृत किया गया है । - इस प्रकार के सर्वज्ञ वीतराग देव के द्वारा जो सिद्धान्त और संविधान कहा जाता है वह लोकोपकारी प्रमाणित और सर्वथा विरोधरहित होता है। कारण कि वक्ता की प्रामाणिकता से वचनों में प्रामाणिकता सिद्ध की जाती है। इसलिए पूजा-विधान या अहिंसा आदि सिद्धान्तों का प्रथम उद्भवस्थान तीर्थकर सिद्ध होता है। जैनदर्शन के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ आप्तमीमांसा में इसी विषय का उल्लेख भी किया गया है 1. धनंजय कां 2. आ. मी स त्वमेवासि निर्दोषी युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ * 1967 पद्य 6. नाममाला प्र. मोहनलाल शास्त्री जबलपुर पृ. 18 : पद्य- 114/1980आज़मीमांसा सं. पं. दरबारी लाल कोटिया प्र वीरसेवा मन्दिर दिल्ली : : : जैन पूजा काव्य का उद्भव और विकास :: 27
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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