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________________ : i 4 समपर्ण करने के समस्त काव्य 270 हैं जो रत्नत्रय के उत्तरगुणों को सूचित करते हैं, वे इस प्रकार हैं- सम्यग्दर्शन के उत्तरगुण - 50, सम्यक्ज्ञान के उत्तरगुण 70 और सम्यक् चारित्र के उत्तरगुण 150 हैं। इनका योग 270 हो जाता है। इन उत्तर गुणों का स्पष्टीकरण अर्ध काव्यों से जानना चाहिए। सम्यक्ज्ञान की पूजा के कुछ महत्त्वपूर्ण काव्य सम्यक्ज्ञान की स्थापना मति श्रुत अवधि ज्ञान मन लाय, मनपर्यय केवल समझाय । ये ही पाँचों सम्यक्ज्ञान पूजों थाप यहाँ हित आन || इसके पाँच प्रकार होते हैं - ( 1 ) मतिज्ञान - पाँच इन्द्रियाँ तथा मन से विकसित होनेवाला वस्तु का प्राथमिक ज्ञान, जो कि मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से होता है | ( 2 ) श्रुतज्ञान - मतिज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थ को विशेष रूप से जानना । (3) अवधिज्ञान- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सीमा लिये हुए इन्द्रियों की अपेक्षा के बिना पदार्थ का स्पष्ट ज्ञान, जो आत्मा में विशेष साधनों से उत्पन्न होता है। (4) मन:पर्ययज्ञान - द्रव्य, क्षेत्र आदि की सीमा के साथ दूसरे के मन में विचारे गये तीन काल के पदार्थों को स्पष्ट जानना । (5) केवलज्ञान या उत्कृष्टज्ञान -तीन लोक और तीन काल के सम्पूर्ण द्रव्य, गुण तथा अवस्थाओं को एक साथ स्पष्ट जाननेवाला ज्ञान, जो सम्पूर्ण दोषावरण (कर्म) के क्षय से परमात्मा के होता है। इन पाँच प्रकार के ज्ञानों की हृदय में स्थापना कर इस जीवन में विश्वहित के लिए हम उस ज्ञान की पूजा करते हैं। आचारांग श्रुलज्ञान के लिये अर्ध अर्पण का काव्य खाये जतन यतन से चलें, बोले जतन यतन तें हले । आचारांग क्रिया यों ही, सो श्रुतसम्यक् पूजों सही ॥ * विद्यानुवादपूर्वश्रुतज्ञान के लिए अर्घ अर्पण करने का काव्य विद्यासाधनमन्त्र, जन्त्र विधि जानिये स्वर लक्षण अरु स्वप्न, आदि विधि मानिये । पूर्व यह विद्यानुवाद, शुभ थान है सो श्रुत सम्यक्ज्ञान, जजों श्रुति आन हैं।" 1. लत्रयविधान, पृ. 32 2. वय, पू. 36 4. जयैव, पृ. ।। जैन पूजाकाव्यों में रत्नत्रय : 235
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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