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________________ निकला, उसने दोनों को रोता देखकर गेन का कारण पूछा। दोनों ने अपने कारण कह दिये। उस बुद्धिमान व्यक्ति ने शीघ्रता से अन्धे के कन्धे पर लँगड़े को बैठा दिया, और तीसरे पुरुष को जगाया, तोनार. शी. ही दौः लगाने को कह दिया। उनके कहने से तीनों पुरुष शीघ्र दौड़कर अपने इष्टस्थान को अच्छी तरह प्राप्त हुए। ज्ञानं पंगी क्रिया चान्ध, निःश्रद्ध नार्थकद्वयम् । ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धा त्रयं तत्पद कारणम्॥' जिस प्रकार एक प्रबुद्ध व्यक्ति के कहने से तीन पुरुषों ने मिलकर एक साथ अपने प्राणों की रक्षा अग्नि से की है, उसी प्रकार आचार्यों के उपदेश से यह प्राणी एक साथ दर्शन ज्ञान चारित्र की साधना करने से, संसार रूपी वन में लगी जन्ममरण रूप अग्नि (सन्ताप से अपनी सुरक्षा कर इष्टस्थान मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। इस काव्य में सुन्दर दृष्टान्त द्वारा मुक्ति का एक सर्वश्रेष्ठ मार्ग दशाया गया है जिससे मानव जीवन में एक महतो चेतना जागृत होती है। इसी प्रकार इस जगत के जीवों को जन्म-जरा-मरण आदि के रोग लगे हुए हैं। उन रोगों को औषधि सम्यक् श्रद्धा ज्ञान-आचरण का एक साथ सेवन (साधना) करने से जीव, जन्मादि रोगों से मुक्त हो सकता है। रत्नत्रयविधान विशेष या महती पूजा को 'विधान' कहत हैं। विद्या विधौ प्रकारे च, साथ् रम्येऽपि च त्रिषु ।' विधा या विधान का अर्थ प्रकार तथा प्रशंसा या गुणकोर्तन होता है। रत्नत्रय विधान का अर्थ होता है कि रत्नत्रय पूजा, एक पूजा का प्रकार है। द्वितीय अर्थ होता हैं कि रलत्रय की प्रशंसा या गणकोतन करना रत्नत्रय विधान का अर्थ होता है। इसी प्रकार सिद्ध चक्र विधान आदि की व्याख्या समझना चाहिए। यह विशेष अवसरों पर या पर्व के समय की जाती है, समाज, सामूहिक रूप से इन विधानों को करता है जिससे धर्म की प्रभावना होती है। कविवर पं. टेकचन्द्र जी ने इस रत्नत्रय विधान की रचना की है। इससे पूजा-काव्य का महत्त्व अधिक सिद्ध हो जाता है। इस पृला-काव्य का वर्णनीय विषय, अर्धगाम्भीर्य, तात्पर्य और शब्द-विन्यास ध्यान दने योग्य है। इन पूजा-काव्य के अन्तर्गत चार पूजाएँ हैं, आर्य (अष्ट द्रव्यों का समूह) 1. पुरापाटाचा : सन्मांधामंत : सं.पं. वधमान पाशनाथ सिं. शाम्बी, प.-कल्याग मुद्रणालय सोनादर सन् II, J. टिका . अमरसिंह : अमरकोप : ल. यात गमभ्वरूप. प्र - श्री वेंकटेश्वर प्रेम, सम्बई. १५.७, पृ. 245. पद्य 161 234 :: जैन पूजा-कार : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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