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________________ जैनपूजा-काव्य में द्वितीयरत्न सम्यग्ज्ञान की पूजा सम्यग्ज्ञान के द्वारा तीन दोषों का निराकरण-वह सम्यग्ज्ञान संशय, मोह और विभ्रम को इस प्रकार नष्ट कर देता है कि जैसे उदित हुआ सूर्य रात्रि और रात्रि में विचरनेवाले जन्तुओं को दूर कर देता है अथातु सम्बग्नान से तीन दोषों का निराकरण होता है। पूजाकाव्य में इसी आशय को व्यक्त करनेवाला काव्य तज्ज्ञानं यन्नुदत्याशु, मोह-संशय-विभ्रमान् । नक्तं नक्तंचराख्यानि, रविविम्बमिवोद्गतम्॥' सम्यज्ञान ही दिव्यनेत्र है-विश्व के सम्पूर्ण तत्व और पदार्थों को देखने में समर्थ ऐसा ज्ञानरूपी नेत्र जिसके नहीं है वह सुन्दरनंत्रवाला होकर भी नियम से अन्धा है। इसी अभिप्राय का काव्य न ज्ञानं लोचनं यस्य, विश्वतत्वावलोकने। सुलोचनापिसाऽवश्वं नरो विगतलोचनः॥ केवलज्ञान अक्षय सुख का कारण-यदि अविनाशी तुख चाहने हों तो इस लोक में अपार महिमा से परिपूर्ण और परलोक में मुक्ति को देनेचाने केवलज्ञान की उपासना करो। तृतीयनेर सम्यग्ज्ञान को जल से पूजानेनं ततोयमखिलाथं विलोकनस्मनलोक यदस्य जगता विपलं स्वभावात्। आनन्दसान्द्रपरमात्मपदाप्तयेऽहं तज्ज्ञानरत्नमसमं पधसा यजामि॥" काव्यसौन्दर्य-इस विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों को देखने में लो स्वच्छ तृतीयन्त्र के समान है, जो स्वभाव से निर्मल है, अनन्त सुख सं परिपूर्ण परमात्मपद की प्राप्ति के लिए, उस सम्यग्ज्ञान की हम पवित्र जल द्रव्य से पूजा करत हैं। अनेकान्तसूर्य से आशीर्वाद की कामना वः सर्वथैकान्तनवान्धकार-प्राचारमस्यन्नयरश्मिजालेः । विश्वप्रकाशं विदधाति नित्यं, पायादनेकान्तरविः स युष्मान्॥ 1. ज्ञानपोट पूजांजलि, पृ. ५१. पद्य-3 2. तथैव, पृ. 159. पद्य3. तथोक्त. पृ. 263. पद्य-5 4. तथोक्त. पृ. 277. पध-4] जैन पूजा-कान्या में रत्न-वर :: 227
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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