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________________ 1 अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से प्रभु भूख न मेरी शान्त हुई, तृष्णा की खाई खूब भरी पर रिक्त रही वह रिक्त रही । युग-युग से इच्छासागर में प्रभु गोते खाते आया हूँ, पंचइन्द्रिय मन के षट्स तज, अनुपम रस पीने आया हूँ। ' इस पद्य में रूपक अलंकार से आत्मा में शान्तरस का अनुभव होता है । जैन दर्शन में रविव्रत का बहुत सम्मान है। प्राचीन काल में वाराणसी नगरी में निवास करनेवाले श्रेष्ठी मतिसागर और उनकी पत्नी गुणसुन्दरी ने एक दिगम्बर मुनिराज के उपदेश से नौवर्ष तक विधिपूर्वक रविव्रत का पालन कर उत्सव के साथ उसका उद्यापन किया था। पुराणों में इसकी कथा प्रसिद्ध है। उसी समय से धर्मवत्सल पुरुष और महिलाएँ प्रति रविवार को रविव्रत पालन करती हैं और तीर्थकर पार्श्वनाथ का पूजन करती हैं। इसको रविव्रत पूजा भी कहते हैं। इसमें विविध छन्दों में निबद्ध उन्तीस पद्य हैं। उदाहरणार्थ दीप अर्पण करने का पद्य इस प्रकार है- मणिमय दीप अमोलक लेकर जगमग ज्योति जगायी, जिनके आगे आरति करके मोहतिमिर नश जायी । पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन पाहीं सुखसम्पति बहु होय तुरत ही आनन्द मंगल दावी ॥ २ इस पद्य में नरेन्द्र छन्द ( जोगीरासा), रूपक अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार, शान्तरस की सरिता प्रवाहित कर रहे हैं । सप्तर्षि पूजा (सात महर्षियों का पूजन, जो ऋद्धिधारी थे) धूप अर्पण करने प दिक्चक्र गन्धित होय जाकर धूप दश अंगी कही सो लाय मन वच काय शुद्ध लगाय कर खेहूँ सही । मन्वादिचारणऋद्धि धारक, मुनिन की पूजा करूँ ता करें पातक हरें सारे सकल आनन्द विस्त इस पद्य में गीता छन्द और उत्प्रेक्षा अलंकार से भक्ति का स्रोत बहता है, जयमाला का प्रथम पथ वन्द ऋषिराजा, धर्मजहाजा, निजपरकाजा करत भले, करुणा के धारी, गगनविहारी, दुख अपहारी भरम दले । 1. जिनेन्द्रपुजनमणिमाला, पृ. 28-1-285 ५. सथैव पृ. 147-152 हिन्दी जैन पूजा - काव्यों में छन्द, रस, अलंकार: 205
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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