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________________ सिद्धि होती है। यहाँ पर प्रसाद का अर्थ है कि प्रसन्नचित्त से परमात्मा की उपासना करना। इससे जो कल्याणमार्ग की सिद्धि होती है वही यथार्थ में परमेष्ठी का प्रसाद है। जैसे किसी रोगी पुरुष को प्रसम्मति से निर्यात सिंचन की गयी आप से जो स्वास्थ्य-लाभ होता है वह औषधि तथा वैद्यराज का प्रसाद कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा के प्रति लक्ष्य रखकर किया गया उपासना का पुरुषार्थ ही उपासक (भक्त) को मुक्तिमार्ग की साधना कराता है और उससे ‘मुक्ति' की प्राप्ति होती है। मुक्ति का मार्ग'-सम्यक् श्रद्धा, समीचीन ज्ञान और समीचीन आचरण इन तीनों की युगपत् साधनारूप होता है, जिसको श्रावक अहिंसाणुव्रत आदि बारह व्रतों की आंशिक साधना से सिद्ध करता है और अहिंसा महाव्रत आदि अट्ठाईस मूलमुणों का धारी 'योगी' उस मुक्तिमार्ग की साधना सर्वांशरूप से करता है। रागद्वेष, मोह, कथाय आदि विकारीभावों के क्षयपूर्वक सम्यक्-दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र-इन तीनों की पूर्णता प्राप्त होने को मुक्ति कहते हैं। (6) तद्गुणलब्धि-परमात्मा के समान श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त करना। इस सन्दर्भ में लोकनीति निदर्शनीय है कि- 'यो यस्य गुणलब्थ्यों , स तं वन्दमानो' दृष्टः इसका आशय यह है-जो पुरुष जिस गुणी पुरुष के समान गुणों को प्राप्त करना चाहता है वह उस गुणी पुरुष की संगति करता है, उसको नमस्कार करता है, उसकी प्रशंसा करता है। जैसे विद्यार्थी गुरु को नमस्कार करता है, संगति करता है। इसी प्रकार परमात्मा के समान गुणों को प्राप्त करने के लिए मानब उसकी पूजा करता है, उसको प्रणाम करता है। सारांश यह है कि मनुष्य को गुणग्राही बनकर गुणी की पूजा-वदना करना चाहिए किन्तु लोक-सम्मान, विषय-भोग, धन आदि के लोभ से नहीं। सद्गुणलब्धि के विषय में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने 'सर्वार्थसिन्द्धि' के मंगलाचरण में कहा है मोक्षमार्गस्थ नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।' आशय यह है कि जो हितोपदेशी, वीतराग और सर्वज्ञ हो उसको उसके समान गुणों की प्राप्ति के हेत, मैं बन्दना करता हूँ। इस कारण से 'तद्गुणलब्धि' उपासना का षष्ठ प्रयोजन या उद्देश्य कहा गया है। I. आचार्य उमास्वामी : तत्वार्थसूत्र : । : I. 2. आचार्य भट्टाकलंक देय : तत्यार्थयार्तिक (राजवातिकी सं.प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य : प्र. भा. ज्ञानपीट काशी, 1933 ई. पृ. ५ : वा. 17 तथा पृ. I0. 5. आचार्य विद्यानन्द आप्तपरीक्षा : सं. दरबारीलाल न्यायागचं : प्र. बोरसंवा पन्दिर ट्रस्ट देहली : सन् 1949 : पृ. 12. 4. सवार्थसिद्धि : सं. फूलचन्द्र शास्त्री, प्र. 'मारतीय ज्ञानपीट काशी, सन् 1956, पृ. it. जैन पूजा काब का उद्भव और विकास :: 2:
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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