SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ " आप्ते श्रुते व्रते तत्त्वे चित्तमास्तिक्य संयुतम् । आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं युक्तं युक्तिधरेण वा ।।' अर्थात् आस्तिक अथवा परीक्षा प्रधानी पुरुष - सर्वज्ञ, शास्त्र, व्रत और जीव आदि तत्त्वों में अस्तित्व बुद्धि रखने को 'आस्तिक्य' कहते हैं। आस्तिक्य प्रयोजन के बिना किसी भी मानव का परमात्मा में भक्ति का भाव नहीं हो सकता। (1) मानसिक शुद्धि-मन की पवित्रता को 'मानसिक शुद्धि' कहते हैं । जब मनुष्य सर्वज्ञ परमात्मा के श्रेष्ठ गुणों का कीर्तन या चिन्तन करता है तब उसमें अहित विचार दूर होकर या पाप वासना का नाश होकर मन के अच्छे विचार तथा उत्साह जागृत हो जाता है, यही 'मानसिक शुद्धि' है। यह प्रयोजन भी अत्यावश्यक हैं, गुणी महापुरुष के गुणों के चिन्तन या कीर्तन बिना हृदय की शुद्धि नहीं हो सकती । आध्यात्मिक अथवा लोकोपकारी किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए मानसिक शुद्धि आवश्यक हैं। नीतिकार का कथन हैं मानसं उन्नतं यस्य तस्य सर्व समुन्नतम् मानसं नोन्नतं यस्य तस्य सर्वमनुन्नतम् ॥ तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष का मन उन्नत या पवित्र है, उसके सब ही कार्य ऊँचे होते हैं और जिस पुरुष का मन गन्दा है या विकारी है, उसके सभी कार्य नीचे होते हैं अथवा अहितकारी होते हैं। अतः भक्ति करने का यह लक्षण भी महान् है । (5) श्रेयोमार्ग की सिद्धि-श्रेयोमार्ग का अर्थ है मुक्ति का मार्ग अथवा आत्म-कल्याण का मार्ग । इसमें विश्व कल्याण की भावना भो सन्निविष्ट है। कारण कि जो व्यक्ति मुक्ति मार्ग या आत्महित की साधना करता है उस व्यक्ति से हो विश्व का कल्याण हो सकता है। इस मुक्तिमार्ग की सिद्धि परमेष्ठी - परमात्मा की भक्ति के बिना नहीं हो सकती । कारण कि जिस आत्मा ने मुक्तिमार्ग की साधना कर मुक्ति को प्राप्त किया है वह आत्मा ही संसार से मुक्ति का मार्ग दर्शा सकती है। इसलिए परमेष्ठी परमात्मा की भक्ति या कीर्तन करना आवश्यक कर्तव्य है। विक्रम की नवमी शती में हुए आचार्य विद्यानन्द ने 'आप्तपरीक्षा' ग्रन्थ में मंगलाचरण के प्रसंग में कहा है- 'श्रेयमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः' इति ।' भावार्थ यह है कि परमेष्टी (परगदेव ) के प्रसाद से श्रेयांमार्ग, मुक्तिमार्ग को 1. पं. आद्याधर सागर धमांमृत सम्पा. पं. चन्द्रशास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ नवी दिल्ली, 1978 ई. ५. आप्तपरीक्षा सम्पा न्यायाचार्य पं दरवारीलाल कोटिया प्र वीरसंवा मन्दिर, देहली 1919 पद्य 2. पृ. ५ 22 जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy