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________________ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धि आदि षोडशकारणानि अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् इति आह्वानम्। ओं ही...अत्र तिष्टत तिष्ठत ठः ठः इति स्थापनम् । ओं ही...अत्र मम सन्निहितानि भवत भवत वषट् इति सन्निधिकरणम्-पुष्पांजलि क्षेपण करें। भावसौन्दर्य--परमप्रमोदसहित इन्द्र के पद को धारण कर अपने मन में आत्मा को धन्य मानता हुआ, तीर्थंकर लक्ष्मी की कारणभूतदर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं की मैं पूजा करता हूँ। यहाँ पर उल्लासरूप भावों से उत्कृष्ट भक्ति परिणामों की अभिव्यक्ति होती है। जल समर्पण करने का पद्य सुवर्णभृगारविनिर्गताभिः, पानीयधारामिरिमाभिरुच्चैः । दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेन्द्रलक्ष्याः, महाम्यहं षोडशकारणानि ॥ इस पद्य में उपजाति छन्द, रूपार स्तिर को सनिवास बाले हैं. अर्घसमर्पण करने के पद्य सं. 10 का सारांश अरिहन्त परमात्मा पद की सोलह कारण भावनाओं की पूजा विधि में, जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से निर्मित अघपात्र हम सबके लिए प्रशस्त मंगल का विस्तार करे। यहाँ तक भावनाओं का समुच्चय पूजन है। इसके पश्चात् प्रत्येक भावना का वर्णन करते हुए अर्घसमर्पण किया गया है। अन्त में प्राकृत जयमाला में प्रत्येक भावना का वर्णन तथा उसके फल का कथन किया गया है। उदाहरणार्थ जयमाला का प्रथम प्राकृत पद्य इस प्रकार है : पत्ता छन्द भवभवहिं निवारण, सोलहकारण, पयडमि गुणगणसायरह। पणविवितित्थंकर, असुहखयंकर, केवलणाण दिवायरहं ॥ सारसौन्दर्य-अनेक गुणों के समुद्र, अशुभ कर्म का क्षय करनेवाले, और केवलज्ञान रूपी सूर्य तीर्थंकरों को प्रणाम करके मैं जगत् के जन्म-मरण को मिटानेवाली सोलह कारण भावनाओं का कथन करता हूँ। इस प्राकृत पद्य में परिकर तथा रूपक-अनुप्रास अलंकारों की छटा से शान्त रस का मधुर पान होता है। जे सोलहकारण, कम्मवियारण, जे घरंति वयसीलधरा । ते दियि अमरेसुर, पहुमि गरेसुर, सिद्धयरंगण हियहि हरा || सोलह कारण पूजा के अन्त में आशीर्वादरूप पद्य एताः घोडशभावना यतियराः मुवन्ति ये निर्मलाः ते वै तीर्थकरस्य नाम पदवीमायुर्लगन्ते कुलम् । संस्कृत और प्राकृत जैन पूजा-कायों में छन्द... :: 13]
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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