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________________ : । 1 पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में, सं. 13 से सं. 22 तक पद्य त्रोटकछन्द में, सं. 23 का पद्य अनुष्टुप् छन्द में, सं. 24 का पथ मालिनी छन्द में और सं. 25 का पद्य वसन्ततिलका छन्द में रचा गया है। भगवान ऋषभदेव की स्थापना के प्रथम तीन पद्य क्रमशः इस प्रकार हैं : मोक्षसौख्यस्य कर्तष्यां आह्वाननं प्रकुर्वेहं जगच्छान्तिविधायिनाम् ||' (1) मन्त्र - ओं ह्रीं श्रीं क्लीं महावीजाक्षरसम्पन्न ! श्रीऋषभ जिनेन्द्रदेव, मम हृदये अवतर अवतर संयोषट् इति आह्वानं । देवाधिदेवं वृषभं जिनेन्द्र, इक्ष्वाकुवंशस्य परं पवित्रम् । संस्थापयामीह पुरः प्रसिद्धं जगत्सु पूज्यं जगतां पतिं च ॥ (2) मन्त्र - ओं ह्रीं श्रीं क्लीं महाबीजाक्षरसम्पन्न! श्री ऋषभजिनेन्द्र देव ! मम हृदये तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः - इति स्थापनम् । कल्याणकर्ता शिवसौख्यभोक्ता, मुक्तेः सुदाता परमार्थयुक्तः । यो वीतरागो गतरोषदोषः, तमादिनाथं निकटं करोमि । (3) मन्त्र - ओं ह्रीं श्रीं क्लीं महाबीजाक्षरसम्पन्न ! श्रीवृषभ जिनेन्द्रदेव ! मम हृदयसमीपे सन्निहितो भव भव वषट् - इति सन्निधिकरणम् ॥ उपरिकथित तीनों पद्यों का क्रमशः सारसौन्दर्य : (1) मुक्ति के अक्षय सुख को प्राप्त करनेवाले, पंच कल्याणरूप सम्पत्ति का भोग करनेवाले, जगत् के प्राणियों को शान्तिमार्ग ( मुक्तिमार्ग) दर्शानेवाले भगवान ऋषभदेव का मन-मन्दिर में हम आह्वान करते हैं। इस पद्य में स्वभावोक्ति एवं रूपकालंकार से भक्तिरस झलकता है। (2) इक्ष्वाकुवंश के श्रेष्ठ पवित्र महात्मा, अखिल विश्व के पूज्य, तीनों लोकों के अधिपति, देवों में परमदेव श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर को हम प्रत्यक्ष अपने मन-मन्दिर में स्थापित करते हैं। इस पद्य में स्वभावोक्ति अलंकार से भक्तिरस का आस्वादन होता है। (3) जो स्व-परकल्याण के कर्ता हैं, मोक्ष के अनन्त सुख के भोक्ता हैं, मोक्षमार्ग के प्रदर्शक, आध्यात्मिकरस में लीन, राग, द्वेष, मोह के विनाशक और जो क्रोध, मान, माया, लोभ के विजेता हैं उन श्री आदिनाथ तीर्थंकर को हम अपने निकट स्थापित करते हैं। इस पद्य में स्वभावोक्ति अलंकार द्वारा भक्ति रस का मधुरपान होता है । उदाहरणार्थ दीपद्रव्य अर्पण करने का पद्य इस प्रकार है : 1. श्री भक्तामरपूजा विधान, सम्पा. पं. मोहनलाल शास्त्री, जबलपुर, सप्तम संस्करण, पृ. 90 से 33 तथा, पृ. 901 174 जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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