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________________ जैनदर्शन में कीर्तन का निदर्शन यह है आत्म-कीर्तन हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतमराम । मैं वह हूँ जो हैं भगवान्, जो मैं हूँ वह हैं भगवान्, अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यहाँ रागवितान || मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमितशक्ति सुख ज्ञाननिधान । किन्तु आसवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान || सुख-दुख दाता कोई न आन, मोह-राग-रुष दुख की खान । निज की निज पर को परजान, फिर दुख का नहि लेश निदान || जिन शिव ईश्वर ब्रह्माराम, विष्णु बुद्ध हरि जिनके नाम । राग त्याग पहुँचूँ निज धाम, आकुलता का फिर क्या काम।। होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम। दूर हटो परकृत परिणाम, 'सहजानन्द' रहूँ अभिराम ॥' श्री सिद्धचक्र की आरती जय सिद्धचक्र देवा, जय सिद्धचक्र देवा । करत तुम्हारी निशदिन मन से, सुर नर मुनि सेवा । जय सिद्ध.... तुम अशरीर शुद्ध चिन्मूरति स्वातमरस भोगी । तुम्हें जपें आचार्य सुपाठक, सर्वसाधुयोगी ॥ जय.... ब्रह्मा विष्णु महेश सुरेश, गणेश तुम्हें ध्यावें । भविजन तुम चरणाम्बुज सेवत, निर्भयपद पावें ॥ जय..... संकट टारन अधम उधारन, भवसागर तरणा । अष्ट दुष्ट रिपुकर्म नष्ट कर जन्म मरण हरना ॥ 1. आत्मकीर्तन क्षु. मनोहरयण न्यासतीर्थ सहजानन्द', ग्रन्थमाला मेरठ, अनुवादक- अंग्रेजी भाषा महेशचन्द्र एम. ए. एल. एल. बी. जर्नलिस्ट (लन्दन ), पू. 7- सन् 1953. 2. वृहतुमहावीर कीर्तन सं. मंगलसैन विशारद प्र. श्री दि. जैन वीर पुस्तकालय श्री महावीर जी, 1971, T. 1000 जैन पूजा -काव्य के विविध रूप 147
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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