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________________ में स्रग्धराछन्द तथा अन्तिम श्लोक में आर्याछन्द है, इस भक्तिकाव्य में अनेक अलंकारों के प्रयोग से शान्तरस पुष्ट होता है। इस भक्ति का अन्तिम काव्य इस प्रकार है कृत्वा कायोत्सर्ग, चतुरष्टदोषविरहितं सुपरिशुद्धम् । अतिभक्तिसम्प्रयुक्तो, यो वन्दते स लघु लभते परमसुखम्।।' श्रुतभक्तिकाव्य-इस भक्ति में तीस काव्यों के द्वारा, (1) मतिज्ञान, (2) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (4) मनःपर्ययज्ञान, (5) केवलज्ञान-इन पंच ज्ञानों का ज्ञेयविषय तथा उनके भेदों का वर्णन किया गया है। इसमें सम्पूर्ण काव्य आयर्याप्छन्दों में रचित है, अन्त में एक विनय गद्य है। इस भक्ति के अन्तिम काव्य में ज्ञान की उपासना का पूर्णफल दर्शाया गया है-ये पाँचों ही ज्ञान लोकाकाश के समस्त पदार्थों को जानने के लिए नेत्र के समान हैं, इसीलिए मैंने इन ज्ञानों की स्तुति की है। इस ज्ञान की स्तुति करने से मुझे एवं ज्ञानीजन को बहुत शीघ्र उस अक्षय सुख की प्राप्ति हो, जो अनन्त सुख ज्ञान से ही प्रकट होता है, इन्द्रियों से विकसित नहीं होता। केवलज्ञान या समशागान आत्मा से ही दिन होता है। जिस सुख में ज्ञान की अनेक ऋद्धियाँ भरी हुई हैं, अनन्तदर्शन तथा भक्ति जिस सुख के साथ है, ऐसा ज्ञानपूर्वक सुख हमको शीघ्र प्राप्त हो । अन्तिम काव्य यह है एवमभिष्टवतो मे, ज्ञानानि समस्तलोकचक्षूषि। लघु भवतात् ज्ञानद्धिः, ज्ञानफनं सौख्यमच्यवनम्।' चारित्रभक्तिकाव्य-इस चारित्रभक्ति में पंच प्रकार के आचारों या आचरणों का वर्णन कर उनकी भक्ति की गयी है। वे पंच आचार इस प्रकार हैं-(1) दर्शनाचार, (2) ज्ञानाचार, (3) चारित्राचार, (1) वीर्याचार, (5) तपाचार, इन पंच प्रकार के आचारों की यथाशक्ति साधना की जाती है। अन्तिम काव्य में आचारों की साधना का परिणाम दर्शाया गया है जो भव्य संसार के दुःखों के धक्कों से भयभीत हो गये हैं, जो नित्य मोक्षलक्ष्मी के लाभ की प्रार्थना करते हैं, जो निकटभव्य हैं, जिनकी बुद्धि परमश्रेष्ठ है जिनके पापकर्म का उदय शान्त हो गया है, जो महान् तेजस्वी, मोक्षमार्ग में पुरुषार्थी हैं, ऐसे ज्ञानीमानव, अत्यन्तविशाल और शुद्ध, मुक्तिरूप महल के लिए निर्मित सोपान के समान श्रेष्ठ चारित्र को धारण करें। इस भक्ति के अन्तर्गत शार्दूलविक्रीडित छन्द में रचित दश काव्य है, अन्त में एक विनय प्राकृतगद्य है। इस भक्तिकाव्य में उपमा, रूपक और स्वभावोक्ति अलंकारों के द्वारा शान्तरस को धारा प्रवाहित होती है। १. तथैव, पृ. 25 2. तर्धेत. पृ. 47 13ti :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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