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सघन चेल को काट डालते हैं, उत्तम जनों के द्वारा मान्य मुक्ति के सुखों को प्राप्त होते हैं तथा कर्मरूप ईंधन के समूह को समूल जला देते हैं। इस काव्य में लक्ष्मीधरा छन्द और रूपक अलंकारों के द्वारा शान्तरस का शीतल आस्वादन होता है। ये सब पद्यरूप । निकाय्य 3:ो ,का ११५ मा भक्तिकाव्य हैं जिनमें अलंकारों के द्वारा शान्त रस की गंगा बहती है वे चार संख्यावाले हैं(1) नन्दीश्वर भक्ति, (2) शान्तिभक्ति, (३) समाधिभक्ति, (4) चैत्यभक्ति।
जिस प्रकार प्राकृत भाषा के जैनभक्तिकाव्यों ने शान्तरस का आस्वादन कराया है उसी प्रकार संस्कृत भाषा के जैनभक्तिकाव्य भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं जिनके अनुशीलन करने से परमात्मा, श्रुत और परमगुरु के गुणों का चिन्तन होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है और शान्तरस के पान करने से आत्मा आह्लादित होती
इसलिए पूज्यपाद आचार्य ने भक्तिकायों की रचना संस्कृत भाषा में निबद्ध की है। ये भक्तिपाठ तेरह हैं--(1) तीर्थकरभक्ति, (2) सिद्धपक्ति, (3) श्रुतभक्ति, (4) चारित्रभक्ति, (5) योगिभक्ति, (6) आचार्यभक्ति, (7) पंचगुरुभक्ति, (8) ईर्यापथभक्ति, (७) शान्तिमक्ति, (10) समाधिभक्ति, (11) निर्वाणभक्ति, (12) नन्दीश्वरभक्ति, (13) चैत्यभक्ति।
तीर्थंकरभक्ति के द्वितीय श्लोक में कहा गया है कि जो तीर्थंकर परमदेव एक हज़ार आठ शारीरिक लक्षण धारण करते हैं, जीय आदि सात तत्त्वरूप महासागर के पारंगत हैं, जन्म-मरण के कारण मिथ्यादर्शन आदि दोषों से रहित हैं, जिनके ज्ञान का प्रकाश सूर्य और चन्द्रमा से भी अधिक है, शरीर का प्रकाश सूर्य से भी अतिशयरूप है, लोक तथा अलोक को जिनका ज्ञान जानता है, सहस्रों इन्द्र और असंख्यात देव जिनकी स्तुति तथा प्रणाम करते हैं, पूजा करते हैं, इन लक्षणों से सुशोभित श्रीऋषभदेव से लेकर श्री महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों की हम महती भक्ति के साथ नमस्कार करते हैं।
"ये लोकेष्टसहस्रलक्षणधराः ज्ञेयार्णवान्तर्गताः” इत्यादि।
इस श्लोक में शार्दूलविबीडित छन्द, रूपक तथा अतिशयोक्ति अलंकारों से शान्तरस की धारा बहती हैं। इस भक्तिपाठ में पंच श्लोक तथा प्राकृत में एक विनय गद्य, मनसा-वाचा-कर्मणा विनयपूर्वक भक्ति को व्यक्त करती है।
सिद्धभक्ति-में सिद्ध परमात्मा के गुणों का स्तवन किया गया है, इसमें दश काव्य संस्कृत के और एक विनय गद्य प्राकृतभाषा की है। अन्तिम श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति अत्यन्त निर्मल भावों से, बत्तीस दोप रहित सिद्धदेवों की भक्ति करता है वह शीघ्र ही मुक्ति के अक्षय सुख को प्राप्त करता है। प्रारम्भ के नवकाव्यों
1. धर्मध्यानप्रकाश, संपा. पं. विद्याकमार मेठी, कुचामन सिटी (राजस्थान), प्रथप संस्करण, पृष्ट 71
जन पूजा-काव्य के विविध रूप :: 135