________________
सारांश-मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता-इन छह अधिकारों का वर्णन करने के पश्चात् आचार्य (गुरु) शास्त्र की रचना या व्याख्यान करे अथवा शुभकार्य में इनका उपयोग करे। इन छह अधिकारों में मंगल की प्रथम आवश्यकता कही गयी है।
मंगल शब्द का अर्थ व्याकरण को व्युत्पत्ति से विचारने योग्य है। वह इस प्रकार है-संस्कृत व्याकरण में मगि (गत्यर्थक) धातु से अलच् प्रत्यय के जोड़ने पर मंगल शब्द निष्पन्न होता है। इसका अर्थ होता है-परमात्मा के गुणों का स्मरण कर आत्मा या परमात्मा की ओर जाना अर्थात् उनमें लीन होकर नमस्कार करना ।
मंगल शब्द का दूसरा अर्थ-मंग = अक्षयसुखं, लाति = ददाति इति मंगलं अर्थात्-जो आत्मा के अक्षय सुख आदि गुणों को देता है उसे मंगल कहते हैं यह मंगपूर्वक ला धता से सिद्ध होता है।
मंगल शब्द का तीसरा अर्ध-मं = पापं विकारं वा गालयति इति मंगलं अर्थात जो आचरण पाप या विकार को गलाये या नष्ट करे उसे मंगल कहते हैं, यह शब्द में पूर्वक गल धातु से सिद्ध होता है।
मंगल को सामान्य व्याख्या यह है कि अशुभ, विकारभाव या पापों को नष्ट करने के ध्येय से पुण्यप्राप्ति या आत्मशुद्धि के लिए जो गुणस्मरणपूर्वक नमस्कारविधि की जाती है उसे मंगल कहा जाता है।
मंगल आचरण के प्रयोजन सात प्रकार के होते हैं-(1) तद्गुणलब्धि = आत्मा के गुणों की प्राप्ति, परमात्मा के गुणों को नमस्कार तथा स्मरण करने से होती है। (2) श्रेयोमार्गसिद्धि = आत्म-कल्याण तथा मुक्तिमार्ग की सिद्धि मंगल से होती है। (3) नास्तिकता का परिहार = नमस्कार करनेवाला भक्त परमात्मा, आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग, मोक्ष, धर्म आदि को विश्वासपूर्वक जानता तथा आचरण करता है। यह आस्तिक है नास्तिक नहीं हैं। (4) निर्विघ्नकार्यसिद्धि = मंगल आचरण करने से निर्विघ्न कार्य की या ग्रन्थ आदि की समाप्ति होती है। (5) कृतज्ञताप्रकाशन = जिन परमात्मा अर्हन्त की कृपा से श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र आदि गुण प्राप्त हुए हैं, मंगल विधि द्वारा उनके प्रति कतज्ञता को प्रकाशित करना यह शिक्षित. पुरुषों का कार्य है। (6) शिष्टाचारपालन = भारतीय संस्कृति के अनुसार सहृदय एवं सन्तमानवों की यह परम्परा चली आ रही हैं कि वे प्रत्येक पुण्यकार्य या ग्रन्थ के प्रारम्भ में दृष्ट-परमात्मा को नमस्कार करते हैं, अतः मंगलाचरण के द्वारा इस पद्धति को अखण्ड रूप से चलाया जाता है। (1) शिष्य को शिक्षा प्रदान = मंगलाचरण की पद्धति से शिष्य को अपने जीवन में शिक्षा प्राप्त होती है कि मंगलाचरण किस समय, किसका, कैसा, कहाँ और क्यों किया जाता है, इससे छात्र जीवन में ज्ञान आदि के अभ्यास करने की बड़ी प्रेरणा मिलती है। इन सात प्रयोजनों से मंगलाचरण किया जाता है। मंगलाचरण करना मानव का अनिवार्य कर्तव्य है।
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप : 121