SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान ऋषभदेव का लोकव्यापी प्रभाव करना चाहेंगे । उससे प्रगट होगा कि दोनों चरित्रों में कितनी अद्भुत समानता है। अधिकांश इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं, कि शिवजी वैदिक आर्यों के देवता' नहीं थे। जब वैदिक प्रार्य भारत में आये थे, उस समय शिव जी के उपासकों की संख्या नगण्य नहीं थी। सिन्ध उपत्यका और मोहऋषभदेव नजोदड़ो-हडप्पा शाखा की खुदाई में शिवजी की मूर्तियों की उपलब्धि से भी इस बात और शिवजी की पुष्टि होती है कि प्राचीन काल में शिवजी की मान्यता बहुत प्रचलित थी। उन्हें शिव, महादेव, रुद्र आदि विविध नामों से पूजा जाता था। ऋषभदेव किस प्रकार शिव बन गये, इसका उल्लेख कई ग्रन्थों में मिलता है। ईशान संहिता में उल्लेख है कि माघ कृष्ण चतुर्दशी की महानिशा में प्रादिदेव करोड़ों सूर्य को प्रभावाले शिवलिंग के रूप में प्रगट हये। माघ कृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । शिवलिंगतयोद्भूतः कोटि सूर्य सम प्रभः ।। शिवपुराण में तो स्पष्ट उल्लेख है कि मुझ शंकर का ऋषभावतार होगा । वह सज्जन लोगों की शरण और दीनबन्धु होगा। और उनका अवतार नौवां होगा। इत्थं प्रभावः ऋषभोऽवतारः शंकरस्य मे। सतां गतिर्दीनबन्धुनबमः कषितस्तु नः ॥ शिवपुराण ४१४७ इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि ऋषभदेव और शिवजी एक ही व्यक्ति थे। अब यह विचार करना शेष रह जाता है कि शिवजी का जो रूप विकसित हुआ, उसका मूल क्या था । इसके लिये दोनों के समान रूप पर तुलनात्मक विचार करना रुचिकर होगा-- दिगम्बर रूप-भगवान ऋषभदेव ने राजपाट छोड़ कर मुनिदीक्षा लेली । अर्थात् वे निग्रन्थ दिगम्बर मुनि बन गये । श्रीमद्भागवत के अनुसार उनके शरीर मात्र परिग्रह बच रहा था। वे मलिन शरीर सहित ऐसे दिखाई देते थे, मानो उन्हें भूत लमा हो। शिवजी को भी नग्न माना है और उनके मलिन शरीर को प्रदर्शित करने के लिये देह पर भभूत दिखाई जाती है। वेदों में जिस शिश्नदेव का उल्लेख मिलता है, उसका रहस्य भी दिगम्बरत्व में ही जटायें- ऋषभदेव ने जब छह माह तक कायोत्सर्गासन से निश्चल खड़े होकर तपस्या की, उस काल में उनके केश बढ़कर जटा के रूप में हो गये थे। ऋषभदेव की अनेक प्राचीन प्रतिमाय जटाजूटयुक्त मिलती हैं । शिवजी भी जटाजूटधारी हैं। नन्दी-जैन तीर्थकरों के चौबीस प्रतीक चिह्न माने गये हैं। तीर्थकर प्रतिमाओं पर वे चिह्न अंकित रहते हैं । उन चिह्नों से ही तीर्थकर-प्रतिमा की पहचान होती है, ऋषभदेव का प्रतीक चिह्न वृषभ (वैल है। शिवजी का वाहन भी वृषभ है। कैलाश-ऋषभदेव ने कैलाश पर जाकर तपस्या की और अन्त में वहीं से उन्होंने निर्वाण (शिव पद) प्राप्त किया। शिवजी का धाम भी कैलाशपर्वत माना गया है। शिवरात्रि-ऋषभदेव ने माघ कृष्णा चतुर्दशी को कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया था। यही तिथि शिवजी के लिंग-उदय की तिथि मानी जाती है। कहीं कहीं शिवरात्रि माघ कृष्णा चतुर्दशी को न मान कर फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को मानी जाती है। यह अन्तर उत्तर और दक्षिण भारत के पञ्चाङ्गों के अन्तर के कारण है। 'काल माघवीय नागर खण्ड' में इस अन्तर पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला गया है, जो इस प्रकार है 1. In fact, Shiv and the worship of Linga and other features of popular Hinduism were well established in India long-long before the Aryans came. -K. M. Pannikkar, a survey of Indian history.p.4 २. पद्मपुराण ।।२८५-२५८ । मादिपुराण १८७५ । हरिवंशपुराण १।२०४
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy