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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास मौर दूर के दृश्य देख लेना भादि सब प्रकार की सिद्धियां अपने आपही सेवा करने को श्राई; परन्तु उन्होंने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया । ७८ - श्रीमद्भागवत पंचम स्कन्ध पंचम अध्याय 'भगवान ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालों के भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड़ पुरुषों की भांति अछूतों के से विवि द्वेष, भाषा और आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाये रहते थे । अन्त में उन्होंने योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिये अपना शरीर छोड़ना चाहा। वे अपने अन्तःकरण में प्रभेदरूप से स्थित परमात्मा को अभिन्न रूप से देखते हुए वासनामों की अनुवृति से छूटकर लिंगदेह के अभिमान से भी मुक्त होकर उपराम हो गये। इस प्रकार लिंगदेह के अभिमान से मुक्त भगवान ऋषभदेव जी का शरीर योगमाया को वासना से केवल अभिमानाभास के श्राश्रय ही इस पृथ्वी तल पर विचरता रहा। वह देववश कोंक, बैंक और दक्षिण बादि कुटक कर्णाटक के देशों में गया और मुंह में पत्थर का टुकड़ा डाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्त के समान दिगम्बर रूप से कटकाचल के वन में घूमने लगा । इसी समय भावात से झकझोरे हुए बांसों के घर्षण से प्रवल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वन को अपनी लाल लाल लपटों में लेकर ऋषभदेव जी के सहित भस्म कर दिया । ... भगवान का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्ष मार्ग की शिक्षा देने के लिये ही हुआ था। इसके गुणों का वर्णन करते हुए लोग इन वाक्यों को कहा करते हैं-- अहो ! सात समुद्रों वाली पृथ्वी के समस्त द्वीप और वर्षों में यह भारतवर्ष बड़ी ही पुण्यभूमि है क्योंकि यहां के लोग श्रद्धि के मंगलमय अवतार चरित्रों का गान करते हैं । हो ! महाराज प्रियव्रत का वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुधशपूर्ण है जिसमें पुराण पुरुष श्री श्रादिनारायण ने ऋषभावतार लेकर मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले पारमहंस्य धर्म का आचरण किया। इन जन्मरहित भगवान ऋषभदेव के मार्ग पर कोई दूसरा योगी मन से भी कैसे चल सकता है। क्योंकि योगी लोग जिन योगसिद्धियों के लिये लालायित होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें उन्होंने अपने प्राप प्राप्त होने पर भी असत् समझकर त्याग दिया था। श्रीमद्भागवत पंचम स्कंध षष्ठ अध्याय 'हमारे पिता ऋषभ के रूप में अवतीर्ण होकर उन्होंने श्रात्मसाक्षात्कार के साधनों का उपदेश दिया है। - श्रीमद्भागवत एकादश स्कंध चतुर्थ अध्याय भगवान ऋषभदेव और कुछ वैदिक देवताओं के रूप में आश्चर्यजनक रूप से समानता दिखाई पड़ती है। उससे यह सन्देह होता है कि भगवान ऋषभदेव और उन देवताओं का व्यक्तित्व विभिन्न नहीं, अपितु एक ही है अर्थात् ऋषभदेव और वे देवता एक हैं, भिन्न नहीं है, केवव नाम-रूप का ही अन्तर है और वह नाम रूप का अन्तर भी सालंकारिक वर्णन के कारण है । यदि उन आलंकारिक वर्णनों के मूल लक्ष्य को हम हृदयंगम कर सकें तो उससे कुछ नये रहस्य उद्घाटित किये जा सकते हैं । तब भारत के प्राचीन धर्मों और मान्यताओं की विभिन्नता में भी एकता के कुज बीजों और सूत्रों का अनुसन्धान किया जा सकता है। हमारा ऐसी विश्वास है कि यदि विश्व के धर्मों की मौलिक एकता का अनुसन्धान करने का प्रयत्न किया जाय तो भगवान ऋषभदेव का रूप उसमें अत्यन्त सहायक हो सकता है । भगवान ऋषभदेव और प्रमुख वैदिक देवता अनेकता में एकता और विभिन्नताओं में समन्वय ये दो सूत्र ही मतभेदों को दूर कर सकते हैं और दानास्मक अन्तर्द्वन्द्वों की कटुता को कम कर सकते हैं । ऋषभदेव जैन और वैदिक इन दोनों भारतीय धर्मों के आराध्य रहे 1 हैं । जैनों ने उन्हें प्रथम तीर्थंकर माना है और वैदिक पुराणों में उन्हें भगवान के स्वीकार किया है । इस प्रकार ऋषभदेव प्राचीन भारत में प्रागैतिहासिक काल में से पूज्य रहे हैं। आज भी जैन और वैदिकों के बीच सौहार्द और समन्वय का कोई है तो वह ऋऋषभदेव ही हो सकते हैं । अवतारों में आठवां अवतार सम्पूर्ण जनता के समान रूप सामान्य आधार बन सकता यहां हम ऋषभदेव और कुछ वैदिक देवताओं के पुराणर्वाणित रूप का एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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