SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास माघ मासस्य शेषे या प्रथमे फाल्गुणस्य च। कृष्ण चतुर्वशी सा तु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता। प्रर्थात् दक्षिण वालों के माघ मास के उत्तर पक्ष की तथा उत्तर वालों के फाल्गुन मास के प्रथम पक्ष की कृष्णा चतुर्दशी शिवरात्रि कही गई है। उत्तर भारत वाले मास का प्रारम्भ कृष्ण पक्ष से मानते हैं और दक्षिण वाले शक्ल पक्ष से मानते हैं। वस्तुत: दक्षिण भारत वालों का जो माघ कृष्णा चतुर्दशी है, वही उत्तर भारत वालों की फाल्गुण कृष्णा चतुर्दशी है। ईशान संहिता में शिवलिंग के उदय की तिथि स्पष्ट शब्दों में माघ कृष्णा चतुर्दशी बताई है, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। गंगावतरण-जैन मान्यता है कि गंगानदी हिमवान पर्वत के पा सरोवर से निकल कर पहले पूर्व की पोर और फिर दक्षिण की ओर बहती है। यहां गंगाकूट नामक एक चबूतरे पर जटाजूट मुकुट से सुशोभित ऋषभदेव की प्रतिमा है । उस पर गंगा की धारा पड़ती है। मानो गंगा उनका अभिषेक ही कर रही हो । इसी प्रकार शिवजी के बारे में मान्यता है कि गंगा जब आकाश से प्रवतीर्ण हुई तो शिवजी की जटाओं में पाकर गिरी और वहीं बहुत समय तक विलीन रही। त्रिशूल और अन्धकासुर-जैन शास्त्रों में ऋषभदेव के केवल ज्ञान-प्राप्ति के सिलसिले में अनेक स्थानों पर ग्रालंकारिक वर्णन मिलता है कि उन्होंने विरल (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) रूप त्रिशूल से मोहनीय या मोहासुर का नाश किया अथवा शुद्ध लेश्या के त्रिशूल से मोह रूप अन्धकासुर का वध किया । इसी प्रकार शिवजी त्रिशूलधारी और अन्धकासुर के संहारक माने गये हैं। इसीलिए शिव-मूर्तियों के साथ त्रिशल और नरकपाल बनाये जाते हैं। लिंग पूजा-तीर्थकरों के गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवल ज्ञान और निर्वाण कल्याणक जहां होते हैं, वे स्थान क्षेत्र मंगल और कल्याणक भूमियां मानी जाती हैं ! ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया। कैलाश का प्राकार लिंग जैसा है। चक्रवर्ती भरत ने कैलाश के साकार के घण्टे बनवाये ये पोर उन पर ऋषभदेव की प्रतिमा उत्कीर्ण कराई थी। तिब्बती भाषा में लिंग-पूजा का अर्थ क्षेत्र-पूजा होता है। कैलाश तिब्बती क्षेत्र में है। तिब्बती कैलाश क्षेत्रको पवित्र मानते थे। जिसे वे लिंग-पूजा कहते थे। शिव-भक्त भी लिंग-पूजा करते हैं। प्राचीन काल में लिंग-पूजा से कैलाश पर्वत की पूजा का ही प्राप्नय था । किन्तु जब शैव धर्म तान्त्रिकों के हाथों में पड़ गया, तब लिग क्षेत्र के प्रपं में न रहकर पुरुष की जननेन्द्रिय के अर्थ में लिया जाने लगा। इतना ही नहीं, उन्होंने पर्वत पर तपस्या के फलस्वरूप प्राप्त हई प्रात्म-सिद्धि को पार्वती नाम से एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व दे दिया और पुरुष लिग के साथ स्त्री की भग-पूजा की कल्पना कर डाली। १. प्राविजिगप्पडिमामो तामओ जा मउड सेहरिस्साभी। पडिमोपरिम्म गंमा पभिसित्तुमणा व सा परदि ।। तिलोव पाति।।१५. सिरिविह सीसट्रियं बुजकारिणय सिंहासणं सगमंडलं । बिराममिसितमणा या मोदिष्णा मत्पए नंगा ।। त्रिसोकसार १० २. तिरपरण-तिसूस पारिय महिषासुर कबंध विदहरा । सिद्ध सयलप्परुवा भरिहता हप्णय कयंता। --पवतल सिद्धान्त ग्रन्थ, वीर सेनाचार्य गुड लेश्या त्रिफूलेन मोहनीय रिपुहंतः । -हरिवंशपुराण
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy