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________________ ६२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास शुभ रूप-रस गन्ध-स्पर्श-शब्द का अयक होना, २०. शुभ रूप-रस- गन्ध-स्पर्श-शब्द का प्रकट होना, २१. बोलते. समय भगवान के गम्भीर स्वर का एक योजन तक पहुंचना २२. श्रर्धमागधी भाषा में भगवान का धर्मोपदेश, २३. अर्ध मागधी भाषा का प्रार्य-अनार्य मनुष्य और पशुओं की अपनी-अपनी भाषा के रूप में परिणत होना, २४. भगवान के चरणों में पूर्व भव के वरी देव ग्रसुर ग्रादि का वैर भूल कर प्रसन्न मन से धर्म श्रवण करना, २५. अन्य तीर्थ के वादियों का भी भगवान के चरणों में श्राकर वन्दना करना, २६. वाद के लिये श्राये हुए प्रतिवादी का निरुत्तर होना, २७ जहाँ भगवान का विहार हो, उसके पच्चीस योजन तक ईति का न होना, २८. पच्चीस योजन तक मारी का न होना, २६. स्वचक्र का भय न होना, ३०. परचक्र का भय न होना, ३१. अतिवृष्टि का न होना, ३२. श्रनादृष्टि का न होना, ३३. दुर्भिक्ष का न होना तथा ३४. जहाँ जहां भगवान बिचरण करें, वहाँ-वहाँ पूर्व उत्पन्न उत्पादों का शीघ्र शान्त होना । दोनों सम्प्रदायों-- दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में तीर्थकर भगवान के चौंतीस प्रतिशय स्वीकार की गई हैं। प्रतियों के नामों में कहीं कहीं साधारण सा अन्तर है । भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है, यह सुनकर सम्राट् भरत अन्तःपुर की स्त्रियों, परिजन मौर पुरजनों के साथ भगवान के दर्शनों के लिये आये । भरत ने प्रथम पीठिका पर पहुंच कर प्रदक्षिणा दी और चारों ओर स्थित धर्मों की पूजा की। फिर दूसरे पीठ पर स्थित भगवान की ध्वजाओं की पवित्र सुगन्ध आदि द्रव्यों से पूजा की। फिर प्रष्ट प्रातिहार्य युक्त और जगत के गुरु स्वामी ऋषभदेव को देखकर उनकी प्रदक्षिणा भगवान का परिवार की भोर उत्कृष्ट सामग्री से उनकी पूजा की, उन्हें नमस्कार किया और भक्ति प्लावित से उनकी स्तुति की। तदनन्तर भरत भी मण्डप में प्रवेश कर अपनी योग्य सभा हृदय बैठे। फिर हाथ जोड़ कर भगवान से विनय पूर्वक प्रार्थना की- हे भगवन् ! धर्म क्या है ? उसका मार्ग और फल क्या है ? जा में भगवान की गम्भीर दिव्य गिरा खिरी। उस समय भगवान के मुख पर कोई विकार नहीं था । उस समय भगवान के न तो तालू प्रोठ प्रादि ही हिलते थे, न उनके मुख की कान्ति हो बदलती थी। भगवान की दिव्य ध्वनि इस प्रकार निकल रही थी, मानो पर्वत की गुफा में से प्रतिध्वनि निकलती है। वह वाणी भगवान की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी । भगवान की दिव्य गिरा में धर्म का स्वरूप, धर्म के भेद, धर्म का फल प्रादि विस्तार से प्रगट हुए । जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव का परम कल्याणकारी उपदेश सुन कर महाराज भरत ने भगवान से सम्यग्दर्शन की शुद्धि और प्रणुव्रतों की परम विद्युद्धि को प्राप्त किया । अर्थात् उन्होंने सम्यग्दर्शन के साथ पाँच अणुव्रत और सात शीलव्रत धारण किये । अन्य अनेक जीवों ने भी यथायोग्य नियम व्रत धारण किये । उस पुरिमताल नगर का स्वामी और भरत का छोटा भाई वृषभसेन भगवान का कल्याणकारी उपदेश सुनकर भगवान के समीप दीक्षित हो गया और भगवान का प्रथम गणधर बना । उसी समय कुरु वंशियों में श्रेष्ठ महाराज सोमप्रभ अपने पुत्र जयकुमार को राज्य देकर श्रपने अनुज श्रयान्तकुमार राहित भगवान के समीप ३रीक्षा लेकर उनके गणघर बने । भरत की छोटी बहन ब्राह्मी भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्थिकाओं के बीच मुख्य गणिनी के पद को प्राप्त हुई । बाहुबली की छोटी बहन सुन्दरी ने भी आर्यिका दीक्षा ले लो। श्रुतकीर्ति नामक एक धर्मात्मा व्यक्ति ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये और वह देशव्रत धारण करने वाले गृहस्थों में सबसे श्रेष्ठ हुआ । एक पतिव्रता प्रियव्रता नाम को स्त्री श्राविका के व्रत धारण कर श्राविकाओं में श्रेष्ठ कहलाई । भरत के एक भाई अनन्तवीर्य ने भी संबोध पाकर भगवान से दीक्षा प्राप्त की और उन्होंने अवसर्पिणी युग में सबले पहले मोक्ष प्राप्त किया । भगवान की देखादेखी जो चार हजार राजा पहले दीक्षित हुए थे और भ्रष्ट गए थे, वे 'भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है' यह सुनकर पुनः भगवान के समीप घाये और एक मरीचि को छोड़ कर शेष सबने पुनः दीक्षा ले ली। और तपस्या करने लगे । अन्य अनेक लोगों ने भी भगवान से मुनि दीक्षा और श्रावक के व्रत ग्रहण किथे । तीर्थंकरों के पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवली, विक्रिया ऋद्धि के धारक, विपुलमति और वादी इस प्रकार ये सात संघ होते हैं ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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