SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान द्वारा धर्म-चक्र-प्रवर्तन ६३ भगवान ऋषभदेव के संघ में कुल ऋषियों की संख्या चोरासो हजार थी, जिनमें पूर्वधर ४७५०, शिक्षक ४१५०, अवधिज्ञानी ६०००, केबली २००००, विक्रियाधारी २०६००, विपुलमति १२७५० और वादियों को कुल संख्या १२७५० थी। तथा मुनियों की संख्या ८४०८४ थी। ऋषभदेव के तीर्थ में प्रायिकाओं की कुल संख्या साढ़े तीन लाख थी। धावकों की संख्या तीन लाख और श्राविकामों की कुल संख्या पांच लाख थी। वान के संघ में साधनों की कुल संख्या ८४०८४ थी। प्रत्येक तीर्थकर के संघस्थ साधनों के गण होते हैं। उन गणों में कुछ निश्चित संख्या में साधु रहते हैं। उन गणों में से प्रत्येक गण के ऊपर एक गणधर होता है, जो साधुओं का सम्यक् नियमन करता है, उनमें अनुशासन बनाये रखता है। भगवान ऋषभभगवान के गणधर देव के साधुनों के चौरासी गण थे और उन गणों के नियामक चौरासी' गणधर थे. जिनके नाम इस प्रकार थे१. वृषभसन, २. कुम्भ, ३. दृढ़रथ, ४. शत्रुदमन, ५. देवशर्मा, ६. धनदेव, ७. नन्दन, ८. सोमदत्त, १. सुरदत्त, १०. वायुशमा, ५१. सुबाहु, १२. देवाग्नि, १३, अग्निदेव, १४. अग्निभूति, १५. तेजस्वी, १६. अग्निमित्र, १७. हलधर, १८. महीघर, १६. माहेन्द्र, २०. वसुदेव, २१. वसुन्धर, २२. अचल, २३. मेरु, २४. भूति, २५. सर्वसह, २६. यज्ञ, २७. सर्वगृप्त, २८, सर्वप्रिय, २६. सर्वदेव, ३०. विजय, ३१. विजयगुप्त, ३२. विजयमित्र ३३. बिजयश्री, ३४, परारब्य, ३५. अपराजित, ३६. वसुमित्र, ३७. बमुसेन. ३८. साधुसेन, ६. सत्यदेव, ४०. सत्यवेद, ४१. सर्वगुप्त, ४२. मित्र, ४३. सत्यवान, ४४. विनीत. ४५. संवर, ४६. ऋषिगुप्त, ४७. ऋषिदत्त, ४८. यज्ञदेव, ४६. यज्ञगुप्त, ५०. यज्ञमित्र, ५१. यज्ञदत्त, ५२. स्वायंभुव, ५३. भागदन, ५४, भागफल्गु, ५५. गुप्त, ५६. गुप्त 1, ५८, प्रजापति, ५६. सत्ययश, ६७. वरुण, ६१. धनवाहिक, ६२. महेन्द्रदत्त ६३. तेजोराशि, ६४. महारथ, ६५. विजयश्रुति, ६६. महाबल, ६७. सुविशाल, ६८. वन, ६६. वैर, ७०. चन्द्रचूड़, ७१. मेघेश्वर, ७२. कच्छ, ७३. महाकच्छ, ७४. सुकच्छ, ७५. अतिबल, ७६. भद्रावलि, ७७. नमि, ७८. विनमि, १६. भद्रबल, ८०. नन्दी, ८१ महानुभाव, ८२. नन्दिमित्र, ८३. कामदेव, ८४, अनुपम । ९. भगवान द्वारा धर्म-चक्र-प्रवर्तन भगवान की प्रथम दिव्य ध्वनि परिमताल में खिरी थी। यही भगवान का धर्म-चक्र-प्रवर्तन कहलाया। भगवान यदि चाहते तो शेष सारा जीवन मौनपूर्वक व्यतीत कर सकते थे, जिस प्रकार उन्होंने अपने छदभस्थ काल के एक हजार वर्ष मोनपूर्वक बिताये थे। किन्तु उन्हें धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करके भव्य प्रयाग में भगवान जीवों का कल्याण करना था। जब तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया था, उस समय उन्होंने रा धर्म-चक्र-प्रवर्तन सोलह कारण भावनामों का चिन्तन करते हए मार्ग प्रभावना की भी भावना की थी, अन्यथा तीर्थकर प्रकृति का भोग पूरा नहीं होता। भगवान का धर्म-चक्र प्रवर्तन केवल मनुष्यों के हित और सुख के लिये ही नहीं था, बल्कि यह तो देव, पश, पक्षी सबके हित और सुख के लिये था। भगवान का धर्म-चक्र-प्रवर्तन फागून सदी एकादशी को भगवान ने धर्म-तीर्थ का उस दिन प्रवर्तन किया था। इसलिये यह कहना चाहिये कि इस युग में धर्म को व्यवस्थित १. हरिवंश पुराण १२१५५-७० ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy