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________________ भगवान को केवल्य की प्राप्ति ने जमीन पर घटने टेककर भगवान को प्रणाम किया। उस समय का दृदय अद्भुत था। संसार की भौतिक विभति से सम्पन्न इन्द्र आत्मा की सम्पूर्ण आध्यात्मिक विभूति से सम्पन्न भगवान के चरणों में झुक रहा था, मानो भौतिक सम्पदा यात्मिक सम्पदा की महानता के प्रति सिर झुका रही थी और यह स्वीकार कर रही थी कि यात्मिक वैभव के समक्ष संसार का सारा वैभव तुच्छ है, नगण्य है। इन्द्र के मुकुट के अग्रभाग में जो देदीप्यमान मणि लगी हुई थी. क्या उसकी समानता चक्रवर्ती की अशेष सम्पदा कर सकती है। किन्तु जब इन्द्र ने भगवान के चरणों में नमस्कार किया, उस समय समस्त चराचर को अपनी प्रभा से प्रकाशित करने वाली इन्द्र की बह मकूट-मणि भगवान के चरण के अंगूठे के नाखुन की प्रभा के समक्ष मन्द पड़ गई । इतना ही नहीं, उस नाखून की प्रभा ने वह मणि चमकने लगी। इसी आशय को व्यक्त करते हुए भक्तामर स्तोत्र के रचयिता याचार्य मानतुङ्ग कहते हैं 'भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणामयोतर्क दलित पापतमो बितानम । सम्यक् प्रणम्य जिनपाद युगं युगादाबालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।। प्राचार्य के ये भक्तिनिर्भर उद्गार तथ्य को ही प्रगट करते हैं। जिस शरीर के भीतर अनन्त ज्ञान से प्रकाशमान प्रात्मा विराजमान है, उस शरीर को ग्राभा भी असाधारण होती है। तदनन्तर इन्द्रों ने और देवों ने खड़े होकर अपने हाथों से गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत और अमृत पिण्डों द्वारा भगवान के चरणों की पूजा की। इन्द्राणी ने भगवान के आगे रत्ल चूर्ण मे विविध रंगी मण्डल पूरा । फिर उसने रत्नों को भगार की नाल से भगवान के समीप जल धारा छोड़ी और देवी सुगन्ध से भगवान के पादपीठ को पूजा की। इसी प्रकार उसने मोलियों से, कल्पवृक्ष के पुष्पों को मालानों से, रत्नदीपों से, थाल में धूप पीर दीपक रखकर अमतपिण्ड से, फलों से, जिनेन्द्र प्रभु की पूजा की। फिर इन्द्र ने भगवान की स्तुति की। - केवल ज्ञान प्राप्त होते ही भगवान की प्रात्मा निष्कलंक, निलेप, निराबरण और शुद्ध हो गई थी। उनकी पवित्रता सर्वाइसम्पूर्ण थी। उनकी आत्मा की शक्ति और प्रभाव अनन्त था। इसलिये कुछ अद्भुत चमत्कारपूर्ण घटनायें हई, जिन्हें अतिशय कहा जाता है। ऐसे अतिशय-जो केवल ज्ञान जन्य थे दस हुए। धवलाकार उनकी संख्या ग्यारह बताते हैं, जो इस प्रकार हैं सौ योजन तक चारों ओर सुभिक्ष होना, आकाशगमन, हिसा का अभाव, भोजन का अभाव, उपसर्ग का अभाव, चारों और मुख, छाया रहिनता, निनिमेप दृष्टि, विद्यानों को ईशता, नख और रोमों का न बढ़ना, अठारह महाभारा, सात सौ क्षद भाषा तथा अन्य अक्षरानक्षरात्मक भाषाओं में दिव्य ध्वनि। इसी प्रकार देव कृत चौदह और धवलाकार के मत से तेरह अतिशय होते हैं, जो निम्न प्रकार हैं - संख्यात योजनों तक बन का फल फलों युक्त होना, सुगन्धित वाय, जाति विरोधी जीवों का सह अस्तित्व, भूमि की निर्मलता, सुगन्धित जल की वर्षा, फल भार से नम्रीभूत शस्थ, सब जीवों को श्रानन्द, शीतल पवन, निर्मल जल से परिपूर्ण तड़ाग, निर्मल आकाश, रोगादि न होना, यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर चार धर्मचक्र, चारों दिशानों में छप्पन स्वर्ण-कमल की रचना। श्वेताम्बर परम्परानों में मान्य चौतीस प्रतिशय-समवायांग सूत्र में तीर्थंकरों के ३४ अतिशय इस प्रकार बताये हैं १. केशरोम और श्मश्रु का न बढ़ना, २. शरीर का रोग रहित और निलेप होना, ३. रक्त-मांस का गोदुग्ध के समान सफेद होना, ४. श्वासोछ्वास का उत्पल कमल के समान सुगन्धित होना, ५. प्राहार-नीहार का अदृश्य होना, ६. आकाशगत चक्र का होना, ७. आकाशगत छत्र का होना, ८. प्राकाशगत श्वेत चामर होना, १. प्राकाशस्थ स्फटिक सिंहासन का होना, १०. हजार पताका वाले इन्द्रध्वज का आकाश में आगे चलना, ११. तीर्थकर भगवान जहां ठहरें, वहाँ फल फूल युक्त अशोक वृक्ष का होना, १२, मुकुट के स्थान से थोड़ा पीछे की ओर तेजो मण्डल का सब दिशाओं को प्रकाशित करना, १३. भूमि का रमणीक होना, १४, काटों का अधोमुख होना, १५. ऋतुओं का सुखदायी होना, १६. शोतल सुखद मन्द पवन से चार-चार कोस तक स्वच्छता का होना, १५. जल विन्दुओं से भूमि की धूल का शमन होना, १८. पांच प्रकार के अचित्त फूलों का जानु प्रमाण ढेर लगना, १६
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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