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________________ २९६ जन धर्म का प्राचीन इतिहास एक दूसरे को छकाते रहे । जब जरासन्ध के सभी दिव्यास्त्रों को कृष्ण ने निष्प्रभ कर दिया, तो जरासन्ध ने हजार यक्षों द्वारा रक्षित चक्ररत्न को स्मरण किया। स्मरण करते ही चक्ररत्न समस्त दिशामों को प्रकाशित करता हमा उसकी उगली पर पाकर ठहर गया । तब उसने वह चक्ररत्न श्रीकृष्ण की ओर फेंका। उस प्रकाशमान चक्ररत्न को आते हुए देखकर समस्त यादव सेना में मातंक छा गया। समस्त यादवपक्षी वीर उस चक्ररत्न को रोकने का प्रयत्न करने लगे। सभी वीर भय से मस्थिर हो रहे थे, केवल एक ही व्यक्ति स्थिर और शान्त था और वे थे भगवान नेमिनाथ, वे अवधिज्ञान के द्वारा इसका परिणाम जानते थे। इसलिए वे श्रीकृष्ण के पास शान्त भाव से खड़े हुए देख रहे थे । वह कान्तिमान चक्ररत्न धीरे-धीरे बढ़ता हुआ पाया। उसने भगवान नेमिनाथ और श्रीकृष्णको प्रदक्षिणा दी और श्रीकृष्ण के शंख, चक्र, अंकुश से चिन्हित दायें हाथ पर पाकर ठहर गया। उसी समय आकाश में देव-दुन्दुभि बजने लगी, पुष्प वर्षा होने लगा, यह नौदा नारायण है, इस प्रकार देव कहने लगे । सुगन्धित पक्त बहने लगा। जरासन्ध को अपनी मृत्यु का निश्चय हो गया, किन्तु वह वीर निर्भय होकर बोला---परे गोप! एक चक्र चला गया तो क्या हुआ, मेरे पास अभी बल और शस्त्रास्त्र सुरक्षित हैं। तु इसे चला कर देख ले। स्वभाव से धीर गम्भीर श्रीकृष्ण शान्त भाव से बोले-'भव तो तुम्हें विश्वास हो गया होगा कि मैं नारायण है। यदि अब भी तुम मेरी प्राधीनता स्वीकार करके मुझे नमस्कार करो तो में तुम्हें क्षमा कर सकता है।' किन्तु जरासन्ध गर्व से बोला-'इस कुम्हार के चाक को पाकर तुझे व्यर्थ ही अभिमान हो गया है। मैं समस्त यादवों सहित तुझे प्रभी यमपुर पहुंचाता हूँ। श्रीकृष्ण ने कुपित होकर घुमाकर चक्ररत्न छोड़ा । उसने शीघ्र ही जरासन्ध के वक्षस्थल को भेद दिया। जरासन्ध टे हए वक्ष के समान निष्प्राण होकर भूलु ठित हो गया। चक्ररत्न पुनः लोट कर श्रीकृष्ण के हाथ में पा गया । श्रीकृष्ण ने अपना पाँचजन्य शंख फूका। भगवान नेमिनाथ, अर्जुन और सेनापति मनावृष्टि ने भी अपने-अपने शंख फुके । शत्रु-सेना में अभय घोषणा कर दी गई। सन श्रीकृष्ण के प्राज्ञाकारी बन गये। दुर्योधन, दोष, दुःशासन, कर्ण प्रादि ने विरक्त होकर मुनि-दीक्षा ले ली। दूसरे दिन जरासन्ध प्रादि मृत व्यक्तियों का सम्मानपूर्वक दाह संस्कार किया गया। इधर सर-पक्ष तो पराजित हो गया था, किन्तु वसुदेव अपने पुत्रों और पौत्रों के साथ विद्याधरों के प्रतिरोध के लिए गये थे, किन्तु वे अभी तक नहीं लौटे थे, न कोई समाचार ही मिला था। यादव इसी चिन्ता में बैठे हए थे। तभी अनेक विद्यापरियो वेगवती, नागफुमारी के साथ प्राकाश-मार्ग से प्राई। पाकर उन्होंने सबको नमस्कार किया और यह शुभ समाचार सुनाया कि विद्याधरों के ऊपर बसुदेव ने विजय प्राप्त कर ली है और सभी विद्याधर उनके थानानुवर्ती बन गये हैं। वे कुछ समय में पाने ही वाले हैं। तभी बिमानों में विद्याधरों के साथ बसदेव और उनके सभी पत्र और पौत्र माये। भाकर सब विद्याघरों में नारायण कृष्ण और बलभद्र मलदेव के चरणों में नमस्कार किया। वसुदेव ने अपने दोनों बिजयी पुत्रों का प्रालिंगन किया, दोनों ने पिता के चरणों में नमस्कार किया। फिर बसदेव और पुत्रों पोत्रों ने महाराज समुद्रविजय आदि को नमस्कार किया। महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त करके श्रीकृष्ण और बलदेव दिग्विजय के लिए निकले। उन्होंने अल्प समय में ही भरत क्षेत्र के सीन खण्डों अर्थात् अर्घ भरत क्षेत्र के सभी राजामों पर विजय प्राप्त कर ली। तब वे दक्षिण दिशा से कोटिशिला पर पहुँचे। वहां पहुंच कर श्रीकृष्ण ने उस एक योजन श्रीकृष्ण द्वारा दिग्विजय ऊँची, एक योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी शिक्षा की पूजा करके उसे अपनी भुजाओं से चार अंगुल ऊपर उठा लिया। प्रथम त्रिपृष्ठ नारायण ने इस शिला को भजामों से सिर से ऊपर उठाया था। द्वितीय नारायण ने मस्तक सक, तीसरे स्वयंभू ने कण्ठ तक, चोपे पुरुषोसम ने वक्षस्थल तक, पांचवें नृसिंह ने हृदय तक, छठवें पुण्डरीक ने कमर तक, सातवें दत्तक ने जांधों तक, पाठवें लक्ष्मण ने घुटनों तक और नौवें नारायण श्रीकृष्ण ने उसे चार अंगुल उपर तक उठाया। शिला उठाने के कारण समस्त नरेशों पर सेना ने उन्हें नारायण स्वीकार कर लिया।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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