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________________ महाभारत युद्ध दिग्विजय करके श्रीकृष्ण और बलराम द्वारिका वापिस आये। समस्त नरेशों ने दोनों भाइयों को प्रर्षचक्रीवर पद पर आसीन करके अभिषिक्त किया । फिर श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के द्वितीय पुत्र सहदेव को मगध का राज्य प्रदान किया। उग्रसैन के पुत्र द्वार को मथुरा का, महानेमि को शौर्यपुर का, पाण्डवों को हस्तिनापुर का, राजा रुधिर के पौत्र सषमनाभ को कोशल देश का राज्य प्रदान किया। श्रीकृष्ण का वैभव प्रपार था। उनके पास सुदर्शन चक्र, शाई धनुष, सौनन्दक खड्ग, कौमुदी गदा, प्रमोधमूला शवित, पांचजन्य शंख, कौस्तुभ मणि ये सात दिव्य ररन थे। इसी प्रकार बलदेव के पास अपराजित हल, गदा, मूसल, शक्ति और माला ये पांच दिव्य रत्न थे । नारायण की प्राज्ञा शिरोधार्य करने वाले राजाओं की संख्या सोलह हजार थी। उनकी सोलह हजार रानियां थीं तथा बलदेव की आठ हजार रानियाँ थी। श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थी, जिनके नाम इस प्रकार थे-रुषिमणी, सत्यभामा, जामवती, लक्ष्मणा, सुसीमा, गौरी, मावती और गान्धारी। पाण्डव आनन्दपूवक हस्तिनापुर में राज्य कर रहे थे । उनका प्रताप चारों प्रोर व्याप्त हो रहा था । नारा यण श्रीकृष्ण उनके मित्र थे। एक दिन घुमन्तू नारद पाण्डवों के महलों में पधारे। पाण्डवों ने पांडवों का निरकासन उनका गमोमा सामान लिया जिमपुर में पदोपदी उस समय श्रृगार में लीन थी, इसलिए नारद कब आये और चले गये उसे इसका कुछ पता नहीं चला किन्तु नारद को द्रौपदी का यह व्यवहार प्रसह्य लगा। उन्होंने द्रौपदी का मान-मर्दन करने का निश्चय किया और वे प्राकाश-मार्ग से पूर्व घातकी खण्ड के भरत-क्षेत्र की मरकापुरी के नरेश पानाभ के महलों में पहुँचे। पद्मनाभ ने उनकी अभ्यर्थना की पौर अपनी स्त्रियों को दिखाकर कहा-क्या आपने ऐसी रूपवती स्त्रियाँ संसार में कहीं प्रत्यत्र देखी हैं ? तब नारद ने द्रौपदी के रूप लावण्य का ऐसा सरस वर्णन किया कि पद्मनाभ उस स्त्री रत्न को पाने के लिए ललक उठा । नारद द्रोपदी के क्षेत्र, नगर, भवन प्रादि का पता बताकर चले गये। तंब पद्मनाभ ने सगमक नामक देव द्वारा सोती हुई द्रौपदी को पर्थक सहित अपने महलों में मंगा लिया। जब द्रौपदी सोकर उठी तो वह पाश्चय से चारों ओर देखने लगी। सभी पद्मनाभ पाकर बोला-'देवि! तुम धातकी खण्ड में हो, मैं यहां का नरेश पचनाभ हैं। मैंने तुम्हें यहाँ मंगवाया है । मैं तुम्हें अपनी पटरानी बनाना चाहता हूँ। पब तुम अपने पति को भूल जायो और मेरे साथ इच्छानुकूल भोग भोगो।' द्रौपदी कपित होकर बोलीतुम नहीं जानते, नारायण कृष्ण और बलभद्र बलराम मेरे भाई हैं, जगविख्यात धनुर्धर अर्जुन मेरे पति हैं। मेरे ज्येष्ठ और देवर अतुल बल विक्रमधारी हैं । उनको कोई स्थान अगम्य नहीं है। यदि तुम्हें मृत्यु प्रिय नहीं है तो तुम अभी मुझे मेरे स्थान पर पहुंचा दो।' यह सुन कर पद्मनाभ खिलखिला कर हँस पड़ा। द्रौपदी इस संकट से विचलित नहीं हुई। उसने नियम कर लिया कि जब तक मुझे मेरे पति अर्जुन के दर्शन नहीं होंगे, तब तक मेरे अन्न-जल का त्याग है। इधर जब पाकस्मिक रूप से द्रौपदी अदृश्य हो गई तो पांडव किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये। वे सीधे श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और उन्हें यह दुःसंवाद सुनाया। सुनकर उन्हें बड़ा दुःख हुमा । उन्होंने सभी नगरों में खोज कराई, किन्तु कोई पता नहीं लगा। एक दिन श्रीकृष्ण की सभा में नारद का आगमन हमा। यादवों से प्रभ्यर्थना पाकर नारद बोले-'मैंने द्रौपदी को पातकी खण्ड द्वीप की अमरकंकापुरी में राजा पद्मनाभ के महलों में देखा है। वह निरन्तर मनपात करती रहती है। उसे केवल अपने शील व्रत का ही भरोसा है।' द्रौपदी के समाचार पाकर श्रीकृष्ण, पाण्डव पौर समस्त यादव अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे नारद की प्रशंसा करने लगे। समाचार पाकर श्रीकृष्ण और पाँचों पांडव द्रौपदी को लाने के लिए रथ में मारूढ होकर चल दिये । दक्षिण समुद्र के तट पर पहुँच कर उन्होंने लवण समुद्र के अधिष्ठाता देवता की माराधना की और तीन दिन का उपवास करके बैठ गये । देवता ने प्रसन्न होकर उन्हें छह रथों में मारूढ़ करके घातकी खण्ड पहुंचा दिया। वहां से वे लोग अमरकंकापुरी पहुँच और बाह्य उद्यान में ठहर गये। उद्यान में नियुक्त प्रहरियों में जाकर महाराजा ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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