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________________ ૨૮૮ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ने उसकी आशंका को यह कहकर बड़ी कठिनता से दूर किया कि मेरा पुत्र महाबली है, उसके प्राणों को कोई संकट नहीं है। बह राक्षस को मार कर सभी लौट पावेगा और इस नगर के निवासियों का संकट सदा के लिये दूर कर पावेगा।' बड़ी कठिनाई से कुन्ती महपति को सहमत कर सकी। तब उन्होंने भीम से कहा-'वत्स! हमें गृहपति ने माधय दिया और हमारा समुचित मातिथ्य किया है। हमें इनके उपकार के ऋण से मुक्त होने का सुयोग प्राप्त हुआ है । पुत्र ! तुम जाओ और उस नराधम के संत्रास में इन्हें मुक्ति दिलायो।' महाबलो भीम माता का प्रादेश मिलते ही उन्हें और अपने अग्रज को नमस्कार करके चल दिया और निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचा, जहाँ वह नर राक्षस अधीरता पूर्वक अपने भोज्य की प्रतीक्षा कर रहा था । हुष्ट पुष्ट भीम को देखकर वह अट्टहास करता हमा कहने लगा-'पहा ! आज मेरी उदरदरी की तुप्ति होगी। स्यूल शरीर में मांस की अधिकता होती है। कई दिनों से पर्याप्त आहार न मिलने से मेरी क्षुधा शान्त नहीं हुई थी । तुझे देखकर वह और अधिक उद्दीप्त हो उठी है।' वह नर राक्षस सपने भोज्य की सलवाई आँखों से देख रहा था, उसकी जीभ बार-बार लपलपाने लगती थी। भीम ने उसके निकट पहुँच कर बज निर्घोष स्वर में कहा-'परे प्रथम ! देखता क्या है । प्राज तेरा माहार काल बनकर पाया है। यदि तुझमें शक्ति हो तो भक्षण कर ।' राक्षस ने सुनकर पुन: अट्टहास किया और अपने तीक्ष्ण नाखूनों वाले पंजों को फैलाये हुए वह भीम की ओर लपका। भीम भी सावधान था । उसने राक्षस के जबड़ों पर कसकर मुष्टिका का प्रहार किया, ऐसा प्रतीत हुआ, मानों बज्रपात हुप्रा हो। वह दैत्याकार राक्षस एक ही प्रहार में रक्त वमन करने लगा । भीम ने उसे सावधान होने का अवसर दिये बिना लगातार बज तुल्य कई प्रहार किये और उनसे वह प्राणहीन होकर भूमि पर गिर पड़ा। जब भीम राक्षस का बध करके लौटा तो नगरवासियों ने संकटमोचक इस देवपुरुष का हर्षपूर्वक जय घोष किया। भीम सबका आदर और अभ्यर्थना ग्रहण करता हुमा अपार जन-समूह के साथ अपने प्रावास को लौटा। उसने पाकर माता और भ्राता के चरण स्पर्श किये । उसके मुख से सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर सभी बड़े हर्षित हुए। पापडव लोग वेश बदलकर विचरण कर रहे थे । मार्ग में कौशिक नगर के नरेश वर्ण की पुत्री कुसुमकोमला ने युधिष्ठिर की प्रशंसा सुनकर हृदय में उन्हें ही पति मान लिया था। वसुन्धर पुर के राजा विध्यसेन की पुत्री वसन्तसुन्दरी को युधिष्ठिर को अर्पित करने का संकल्प गुरुजनों ने कर रखा था। किन्तु प्रोपवी-स्वयंवर पाण्डवों के अग्नि-दाह के समाचार सुनकर कन्या निराश होकर श्लेष्मान्तक वन में एक मात्रम में तापसी बनकर रहने लगी। विभृङ्ग नगर के नरेश प्रचण्ड वाहन की दस पुत्रियाँ थीं-गुण प्रभा, सुप्रभा, ह्री, श्री, रति, पद्मा, इन्दीवरा, विश्वा, प्राचर्या और अशोका । इन्हें भी युधिष्ठिर को प्रदान करने का संकल्प किया गया था। पग्नि दाह का समाचार सुनकर ये राजकूमारियाँ श्राविका के व्रत लेकर विरक्त जीवन बिताने लगी। इसी प्रकार इसी नगर के श्रेष्ठी प्रिय मित्र को कन्या नयनसुन्दरी भी युधिष्ठिर के सम्बन्ध में पन्यथा समाचार सुनकर उक्त राजकुमारियों के समान अणुव्रत धारण करके रहने लगी। चलते-चलते पाण्डव चम्पापुरी में पहुंचे। वहाँ कर्ण शासन करता था । वहाँ एक मदोन्मत्त राजहस्ती नगर में बड़ा उपद्रव मचा रहा था । भीम ने उसे मुष्टिका प्रहारों द्वारा वश में कर लिया । भीम की इस वीरता से कर्ण क्षुब्ध हो उठा । तब पाण्डव विदिशा पहुंचे। एक दिन ब्राह्मण वेशधारी भीम भिक्षा के लिए राजमहलों में पहुँचा। राजा वृषध्वज ने भीम को देखते ही अनुमान लगाया कि छद्म वेश में यह कोई महापुरुष है । वह अपनी कन्या दिशानन्दा को लेकर भीम के आगे खड़ा हो गया और बड़ी विनयपूर्वक बोला-'महाभाग! यह कन्या ही आपके लिये उपयुक्त भिक्षा है, इसलिए आप इसे स्वीकार कीजिए और पाणिग्रहण के लिए हाथ बढ़ाइये।' भीम बोला-'राजन् ! यह भिक्षा तो अपूर्व है। किन्तु ऐसी भिक्षा ग्रहण करने के लिए मैं स्वतन्त्र नहीं हैं।यों कहकर भीम यहाँ से वापिस लौट पाया। किन्तु कन्या ने मन में उसे ही अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया। तदनन्तर पाण्डव नर्मदा नदी को पाकर विन्ध्याचल में पहुँचे । वहाँ संध्याकार नगर में हिडम्बवंशी राजा सिंहद्घोष राज्य करता था। उसकी सुदर्शना रानी और हृदयसुन्दरी नामक पुत्री थी। राजकुमारी के सम्बन्ध में
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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