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________________ महाभारत युद्ध २८७ से यह विद्या कौभि, अमरावर्त, सित, वामदेव, कपिष्टत, नगस्थामा, सरवर, शरासन, पण मोर निनावण को मिली, विद्रावण ने यह विद्या अपने पुत्र द्रोण को दी। द्रोणाचार्य की स्त्री का नाम अश्विनी था और उनका पुत्र अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र को धनुविद्या में पारंगत कर दिया। द्रोणाचार्य कौरवों एवं पाण्डवों को समान रूप से शस्त्र-संचालन का प्रशिक्षण देते थे। किन्तु अपनी प्रतिभा, कचि और विनय के द्वारा अर्जुन धनुर्विद्या में अप्रतिम रूप से पारंगत होगया। दुर्योधन मोर भीम गदा-युद्ध में निष्णात होगये । नकुल और सहदेव ने तलवार संचालन में दक्षता प्राप्त की। इसी प्रकार अन्य राजकुमार भी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न शस्त्रास्त्र संचालन के विशेषज्ञ बन गये। किन्तु उस युग में अनुविद्या ही प्रभावक और निर्णायक मानी जाती थी। अतः अर्जुन की धनुर्विद्या में निष्णता देखकर दुर्योधन आदि कौरव पाण्डवों से ईर्ष्या करने लगे। उनकी ईर्ष्या के मूल में वस्तुतः उनके मन में समाया हुआ भय था। पाण्डवों का अज्ञातवास- कुछ समय पश्चात् कौरव ईर्ष्यावश दोनों पक्षों में राज्य विभाजन के सम्बन्ध में हुई सन्धि में दोष निकालने लगे । उनका तर्क था कि सन्धि दबाव में प्राकर हमें करनी पड़ी थी किन्तु यह सन्धि नितान्त अनुचित है। एक ओर प्राधे राज्य का भोग केवल पांच पाण्डव कर रहे हैं, जबकि दूसरी पोर हम सौ भाइयों के लिए प्राधा राज्य मिला है यह अन्यायपूर्ण है। कौरवों की यह बात पाण्डवों के कानों में भी पहुँची। उससे भीम आदि चारों भाई एकदम क्षुब्ध होउठे किन्तु धीर गम्भीर युधिष्ठिर ने उनको शान्त कर दिया। किन्तु कौरव अवसर की प्रतीक्षा में थे। वे पाण्डवों का कण्टक सदा के लिये निकालना चाहते थे। एक दिन दर्योधन ने योजना बनाकर राजप्रासाद में सोते हुए पाण्डवों के घर में प्राग लगादी। सहसा उनकी नींद खुल गई और पांचों पाण्डब माता कुन्ती को लेकर गुप्त मार्ग द्वारा निकल गए। इस अन्यायपूर्ण घटना से जनता में रोष छा गया। वह दुर्योधन के विरुद्ध हो गई। जनता के इस उमड़ते हुए विद्रोह को देखकर बुद्धिमान मंत्रियों ने जनता में प्रचारित कर दिया कि पाण्डवों के महल में आग स्वतः लगी है और पांचों पाण्डव एवं उनकी माता उसी में भस्म हो गये हैं। उन्होंने शीघ्रता से पाण्डवों की मरणोत्तर क्रिया भी सम्पन्न करादी जिससे जनता का विद्रोह शान्त हो जाय। पाण्डव माता के साथ गंगा को पार कर पूर्व दिशा की ओर चल दिये। वे अपना काल स्वयं अंगीकृत अज्ञातवास में विताने लगे। पाण्डवों के दाह का समाचार द्वारका में पहुँचा। राजा समुद्रविजय, उनके भाई और समस्त यादव अपनी बहन कुन्ती और भागिनेय पाण्डवों को जलाकर हत्या करने की इस भन्यायपूर्ण घटना को सुनकर दुर्योधन के प्रति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे। इस अन्याय का प्रतिशोध लेने के लिए वे विशाल सेना लेकर हस्तिनापुर की ओर चल पड़े। उनके इस अभियान का समाचार चरों द्वारा जरासन्ध को भी ज्ञात हुआ। वह भी सेना लेकर चल दिया । वहाँ पहुंचकर वह यादवों से पादरपूर्वक मिला और उसने दोनों पक्षों में सम्मानपूर्ण सन्धि करादी। पाण्डव कौशिक प्रादि नगरों में होते हुए ईहापुर पहुंचे। वहाँ प्रजा को अत्यन्त सन्त्रस्त और भयभीत देखकर पाण्डवों ने उसके कारण का पता लगाया। वे जिस गृहपति के भावास में ठहरे थे, उससे शात हया कि इस नगर में एक महा भयानक और जर नरभक्षी भृङ्ग नामक राक्षस आता है, वह मनुष्यों की हत्या करता है और उन्हें खाता है। नगरवासियों ने इन हत्याओं से त्रस्त होकर प्रतिदिन एक घर से एक मनुष्य को भेजने की पारी बांध दी है। प्राज हमारे घर की पारी है । अतः हम लोग दुखी हैं। गृहपति की यह दुःख भरी गाथा सुनकर माता कुन्ती को बड़ी दया पाई। उन्होंने गृहपति को प्राश्वासन देकर कहा-'आर्य ! पापको दुखी होने की आवश्यकता नहीं है। आपने हमारा आतिथ्य किया है। हमारा कर्तव्य है कि आपके कुछ काम प्रावें। मेरे ये पाँच पत्र हैं। पापके स्थान पर मेरा एक पुत्र आज जायगा। माप चिन्ता न करें।' गृहपति यह सुनकर अत्यन्त व्याकूल होगया। वह हाथ जोड़कर बोला- माता! मुझ जैसा अधम और कौन होगा जो अपने अतिथि को ही स्वेच्छा से मत्य के मन में धकेल दे। मेरे पुण्य के बल से आप यहाँ पधारे और आपके दर्शन हए । प्रापके ऊपर मेरे घर में निवास करने के समय कोई संकट आवे, इससे तो मृत्यु श्रेष्ठ है। मैं आपको यह कार्य नहीं करने दंगा।' कुन्ती
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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