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________________ महाभारत युद्ध भगवान ऋषभदेव के काल में कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में सोमप्रभ और श्रेयान्स दो नररत्न हए । श्रेयान्स ने भगवान ऋषभदेव को सर्वप्रथम आहार देकर दान तीर्थ की प्रवृत्ति की। सोमप्रभ से सोमवंश अर्थात चन्द्रवंश और कुरुवंश चला। सोमप्रभ के जयकुमार हुमा जो प्रथम चक्रवती भरत का प्रधान करुवंश- सेनापति था। जयकुमार के कुरु हुअा। इसी प्रकार क्रम से कुरुचन्द्र, शुभंकर, धृतिकर आदि हुए। फिर इसी वंश में चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, सोलहवें तीर्थकर एवं चक्रवर्ती शान्तिनाथ, सत्रहवं कन्यनाथ और अठारहवं अरनाथ हुए। इनके पश्चात महापदम चक्रवर्ती, उनके विष्णु और पदम नामक दो पूत्र हा। इन्ही विष्णुकुमार ने मुनि अवस्था में बलि आदि मंत्रियो द्वारा प्रकपनाचार्य प्रादि सात सौ मानयों पर प्राणघातक उपसर्ग करने पर वामन रूप धारण कर उपसर्ग दूर किया था। इनके अनन्तर सुपद्म, पद्मदेव, कुलकीति, कीति, सुकीति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासब, वसु, सुवसु, श्रीवसु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवोर्य, चित्रविचित्र, वीर्य, विचित्र विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धृतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीवत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पारशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिभद्र, शान्तिषेण हुए। शान्तिषण के शन्तनु हुए। उनको रानी का नाम योजनगन्धा था। शन्तनु के धृतव्यास, तदनन्तर धृतधर्मा, धृतोदय, घृततेज, वृतयश, घृतमान और धुत हए । धृत के धृतराज नामक पुत्र हुआ। उसकी तीन रानियाँ थी—अम्बिका, अम्बालिका और अम्बा। अम्बिका से पतराष्ट, अम्बालिका से पाण्डु और अम्बा से विदुर नामक पुत्र हुए। धृतराज के भाई रुक्मण और उनकी रानी गंगा से भीष्म नामक पुत्र हुआ। धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए। इनमें परस्पर में बड़ा प्रेम था । राजकुमार पाण्डु ने यदुवंशी समद्रविजय की बहन कुन्ती के साथ गुप्त रूप से गन्धर्व विवाह किया था। उससे कणं नामक पुत्र हुया। पश्चात् उन दोनों का सार्वजनिक रूप से विवाह हो गया। तब उनके युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक पुत्र उत्पन्न हुए। पाण की दूसरी पत्नी माद्री से नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र हुए। पाण्डु के ये पांचों पुत्र पाण्डव कहलाये । इन पांचों भाइयों में भी परस्पर में अत्यन्त स्नेह था। दुर्योधन प्रादि सौ भाई कोरव कहलाते थे। जब पाण्डु और रानी माद्री का स्वर्गवास हो गया, तब राज्य के अधिकार के प्रश्न पर कौरवों और पाण्डवों में वैमनस्य हो गया । तब भीष्म, विदूर, मंत्री शकुनि प्रादि ने बीच में पड़कर कुरु राज्य के दो समान भाग कर दिये। एक भाग पाण्डवों को और दूसरा भाग कौरवों को मिला । दुर्योधन कूटनीति में निपुण था, जबकि युधिष्ठिर धर्मानुकुल नैतिक मूल्यों के प्रति दृढ़ निष्ठावान थे। कर्ण को कन्ती ने अपवाद के भय से जन्म होते ही एक मंजूषा में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया था। किन्तु उसे एक सत ने नदी में से निकाल लिया था। वह बालक बड़ा होने पर शस्त्रास्त्र-संचालन में अत्यन्त निष्णात हो गया। दर्योधन की सूक्ष्म दृष्टि में वह समा गया और उसने उससे मित्रता करली। दुर्योधन ने अपना बल बढ़ाने के लिए सम्राट् जरासन्ध से भी घनिष्टता बढ़ाली। राजकुमारों का प्रशिक्षण-कौरवों मोर पाण्डबों को शस्त्रास्त्र विद्या सिखाने के लिए उस युग के सर्वश्रेष्ठ विद्यागुरु द्रोणाचार्य को नियुक्त किया गया । द्रोणाचार्य भार्गववंशी ब्राह्मण थे। उनके पूर्वज भार्गवाचार्य थे। वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धत्ता थे। भार्गवाचार्य से यह विद्या आत्रेय को प्राप्त हुई। इसी प्रकार क्रमशः पुत्र-परम्परा २८६
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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