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________________ नारायण कृष्णा २८५ प्रद्युम्न विमान को आकाश में स्थिर करके भूमि पर उतर गया और कौतुक मात्र में सेना को जीत __ कर दुर्योधन-पुत्री उदधिकुमारी का अपहरण करके विमान में ले गया। विमान द्वारका पहुंचा। वहाँ उसने अनेक कौतुक दिखाये। नारद ने सोलह वर्ष पूर्व प्रद्युम्न के आने पर जिन चिन्हों के प्रगट होने की सूचना दी थो, बे चिन्ह प्रगट हो गये। इससे रुक्मिणी को पुत्र-मिलन की माला हो गई। तभी प्रदान विमानसाहार नाना प्रकार के कौतुक दिखाता हमा देष बदलकर माता रुक्मिणी के प्रासाद में पहुंचा। उसे देखते ही रुक्मिणी के स्तनों से दूध भरने लगा। उसे विश्वास हो गया कि हो न हो, मेरा पुत्र यही है। यह वेष बदलकर आया है। प्रद्युम्न के मन में भी माता से मिलने की ललक थी। वह अपने वास्तविक वेष में माता के समक्ष पहुँचा और उनके चरणों में नमस्कार किया। माता हर्ष से रोमांचित हो गई, नेत्र हर्षांश्रुषों से पूरित हो गये। सोलह वर्ष का वियोग-जन्य दुःख क्षण मात्र में सुख के रूप में परिवर्तित हो गया। मां ने अपने बिछुड़े हुए छौना को अक में भर लिया। बिछुड़े हुए माता-पुत्र का यह मिलन कितना रोमांचक, कितना पाल्हादक और कितना मार्मिक था, इसके साथी थे दोनों के नेत्रों से बहते हुए हर्ष के प्रासू । रुक्मिणी माता अपने नन्हे मुन्ने को कभी अंक में कस लेती, कभी बह उसका चुम्बन लेती, कभी उसके सिर को सूघतो और कभी वात्सल्य से उसके सारे शरीर पर अपना हाथ फेरती। किन्तु उसे तुप्ति नहीं हो रही थी। उसके नेत्र हर्ष की वर्षा कर रहे थे, अधर कपित थे, गला अवरुद्ध था। स्तनों से वात्सल्य बरस रहा था । हषं में बेसुध माता और पुत्र न जाने कितनी देर इसी दशा में रहे। तब प्रद्युम्न ने माता से ऊपर विमान में चलने का प्राग्रह किया। माता ने स्वीकृति दे दी। प्रद्युम्न अपनी माता को लेकर विमान में पहुँचा। वहाँ रुक्मिणी नारद और उदधिकुमारी से मिली। तभी प्रद्युम्न के मन में कौतुक जागा। वह प्राकाश में स्थिर होकर बोला-'यादवगण सुनें । मैं पाप लोगों की पटरानी रुक्मिणी का अपहरण करके ले जा रहा हूँ। जिसमें साहस हो, वह छुड़ा ले। यों कहकर उसने शंख-नाद किया। समस्त यादव इस चुनौतो को सुनकर अपने अस्त्र-शस्त्रों को लेकर निकल पड़े। किन्तु प्रधुम्न ने समस्त यादव-सेना को अपनी विद्या से मूच्छित कर दिया । यह देखकर नारायण कृष्ण युद्ध के लिये आये। पिता-पुत्र में बहुत समय तक नाना प्रकार का युद्ध हुआ। दोनों ही अप्रतिम वीर थे। बालक प्रद्युम्न के आगे श्रीकृष्ण का सारा अस्त्र-कौशल निष्फल हो गया। तब दोनों बाह-युद्ध के लिए तैयार हुए। धीकृष्ण मन में विचार कर रहे थे-प्राज मेरी भुजानों का बल कहाँ चला गया। एक बालक ने समस्त यादव-सेना को निश्चेष्ट कर दिया है। इसे देखकर मेरे मन में रोष के स्थान में वात्सल्य क्यों उमड़ रहा है ? रुक्मिणी पति और पुत्र के इस प्रकारण युद्ध से चिन्तित थी। वह अनिष्ट को प्राशंका से बार-बार कांप उठती थी। उसने बड़े अनुनय के साथ नारद से इस गह-युद्ध को रोकने की प्रार्थना की। तब नारद ने आकाश में स्थित होकर कहा-'नारायण! अपने मन में से ग्लानि दूर कर दो। तुम जिस बालक के साथ युद्ध कर रहे हो, वह तुम्हारा शत्रु नहीं पुत्र है। वह रुक्मिणी का अपहृत पुत्र प्रद्युम्न कुमार है जो सोलह वर्ष पश्चात् प्रापके दर्शनों के लिए पाया है।' नारद की यह घोषणा सुनते ही श्रीकृष्ण ने दौड़कर अपने चिरवियुक्त पुत्र को गाढ़ प्रालिंगन में भर लिया और प्रद्युम्न ने झुककर अपने पिता के चरण-स्पर्श किये। फिर उसने माया से निद्रित सेना को विद्या द्वारा जागृत कर दिया। पिता और पुत्र ने स्वजनों और परिजनों के साथ हर्ष के साथ नगर में प्रवेश किया।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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