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________________ महाभारत युद्ध निमित्तज्ञानियों ने पाया था कि जो व्याचल पर्वत पर गदा विद्या को सिद्ध करने वाले विद्याधर को मारेगा, वह हृदयसुन्दरी का पति होगा। एक दिन भीम भ्रमण करते हुए विन्ध्याचल पर्वत पर पहुँचा। वहाँ उसने देखा कि एक व्यक्ति वृक्ष की कोटर में बैठकर गदा को सिद्ध कर रहा है। देखते ही भीम ने गदा उठाली और उस गदा के एक प्रहार से वृक्ष को धराशायी कर दिया । वृक्ष के साथ विद्याधर की भी मृत्यु हो गईं। राजा ने बड़े सम्मानपूर्वक हृदयसुन्दरी का विवाह भीम के साथ कर दिया । २८५ कुछ दिन रह कर पाण्डव लोग विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए हस्तिनापुर की ओर चल दिये । वे चलते-चलते माकन्दी नगरी में पहुँचे । वहाँ का राजा द्रुपद था और भोगवती नामक रानी थी। इनके धृष्टधुम्न आदि पुत्र श्रीर द्रौपदी नामक पुत्री थी । द्रौपदी अत्यन्त सुन्दरी थी, रूप की खान थी और सोन्दर्य में रति को भी लज्जित करती थी। अनेक राजाओं और राजकुमारों ने उसकी याचना की। अन्ततः राजा द्रुपद ने स्वयंवर का आयोजन किया और यह शर्त रखी कि जो घूमते हुए चन्द्रक यन्त्र का बेध कर देगा, वही राजकुमारी के हाथों वरमाला धारण करने का अधिकारी होगा । इसी अवसर पर सुरेन्द्रवर्धन नामक विद्याधर राजा वहाँ श्राया। उसने राजा द्रुपद की प्राज्ञा से यह शर्त रख ली कि जो गाण्डीव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा, और उससे चन्द्रक-वेध करेगा, वही राजकुमारी को पा सकेगा। स्वयंवर का निमन्त्रण पाकर दुर्योधन आदि अनेक राजा और राजकुमार वहाँ एकत्रित हुए । पाण्डव भी कुतूहलवश वहाँ पहुँच गये । सब राजाओं ने गाण्डीव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया, किन्तु उस दिव्य नुष को उठाकर कोई झुका भी नहीं सका। जब सब परास्त हो गये, तब अर्ज ुन उठा, बड़े भ्राताओं के चरणस्पर्श किये, जाकर गाडी धनुष उठाया और लीला मात्र में उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दी । दुर्योधन कर्ज आदि राजा श्रर्जुन के हस्तलाघव को देखकर मन में विचार करने लगे-अर्जुन तो अन्नि में भस्म हो गया, दूसरा अर्जुन कोन उत्पन्न हो गया ? नरेशगण मन में नाना भांति की कल्पना करने में लगे हुए थे, तभी अर्जुन ने निरन्तर घूमते हुए चन्द्रक यन्त्र में स्थित नेत्र की पोर अपने बाण का लक्ष्य साधा और निमिष मात्र में लक्ष्य वेध कर दिया। तभी लज्जा से प्रवमतमुखी द्रौपदी दोनों हाथों में वरमाला लिये। हुए मागे बढ़ी और अर्जुन के गले में डाल दी। उस समय वायु वेग से चल रही थी, चारों भाई अर्जुन के पास खड़े हुए थे। गले में वरमाला डालते समय वह टूट गई और वायु के वेग से उड़कर अर्जुन के साथ मन्य चारों भाइयों के ऊपर जा गिरी। किसी रसिक व्यक्ति ने विनोद में कह दिया कि राजकुमारी ने पांच कुमारों का वरण किया है। एक क्षणिक विनोद स्थाई किम्वदन्ती बन गया । पाण्डव बंधु वर-वधू को लेकर माता कुम्लो के पास ले चले। किन्तु कुछ मात्सर्यदग्ध नरेश एक अज्ञात कुलशील युवक को वरमाला धारण करते हुए देखकर उत्तेजित हो उठे और वे युद्ध के लिए तैयार हो गये । इधर अर्जुन, भीम और धृष्टद्युम्न ने भी अपने धनुष संभाल लिये । उन्होंने अपने बाणों से युद्धलिप्सु नरेशों को रोक दिया। तब अर्जुन ने धृष्टद्य ुम्न के रथ पर मारूढ़ होकर अपना नामाङ्कित वाण गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में फेंका। द्रोण, अश्वत्थामा भीष्म, विदुर आदि ने अर्जुन का नाम पढ़ कर पांचों पाण्डवों को पहचान लिया। सभी पाण्डवों को जीवित देखकर बड़ प्रसन्न हुए। सारा वातावरण ही बदल गया, हर्षनाद होने लगा, शंखवादित्रों का तुमुल घोष होने लगा। नीतिविचक्षण दुर्योधन और उसके भाइयों ने बन्धु-समागम पर हर्ष व्यक्त किया और पाण्डवों का अभिनन्दन किया। अर्जुन और द्रौपदी का विवाह सानन्द सम्पन्न हुआ । दुर्योधन पाँचों पाण्डवों के प्रति प्रेम प्रगट करता हुआ माता सहित उन्हें हस्तिनापुर ले गया और वहाँ कौरव और पाण्डव पूर्व के समान आधे- श्राधे राज्य का भोग करने लगे । प्रज्ञातवास के समय युधिष्ठिर और भीम ने जिन कुल कन्याओंों को स्वीकार करने का आश्वासन दिया उन्हें बुलाकर उनके साथ विवाह कर लिया । सब लोग आनन्दपूर्वक रहने लगे । था, कौरवों और पाण्डवों का समय सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था । किन्तु कुटिल दुर्योधन पाण्डवों के वैभव और उत्कर्ष को देखकर ईर्ष्या से दग्ध रहता था, किन्तु प्रकट में वह प्रेम प्रदर्शित करता था। एक बार दुर्योधन
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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