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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास वे दोनों इधर बात कर ही रहे थे, तब तक जटायु का जीव किसी लाश को कन्धे पर रक्खे उससे बातचीत करता हुआ राम के आगे से निकला। राम ने उससे पूछ तू मुर्दे को क्यों लादे हुए है और उससे सुख-दुःख को बान करने से तुझे क्या लाभ होगा ?' तब जटायु के जीव ने उनसे कहा - ' तब आपने भी तो अपने भाई की लाश कोलाद रक्खा है। आपको ही उसमे बातचीत करने से क्या मिल जायगा ?' राम ने जब यह सुना तो उन्हें होश आया । वे तार-चार लक्ष्मण के मुंह को शोर ताकने लगे। जब देखा कि लक्ष्मण का शरीर प्राणरहित है तो उन्हें संसार की अनित्यता समझ कर वैराग्य हो गया। वे सोचने लगे- संसार में कौन किसकी माता श्रोर कौन भाई हैं! यह यौवन सदा किसका रहा है ? सब कुछ बिनाशोक है। इन सबसे सम्बन्ध तोड़ लेना ही श्रेयस्कर है। राम को विरक्त जानकर दोनों देव प्रगट हुए और अपना परिचय देकर बोले- हम दोनों चौथे स्वर्ग में देव हुए हैं। आपको दुखी जानकर समझाने श्राये थे। राम के कहने से सुग्रीवादि ने चिता बनाकर लक्ष्मण की देह का दाह संस्कार किया । स्नानादि से पवित्र होकर राम ने शत्रुध्न का राज्याभिषेक करना चाहा, किन्तु उसने स्त्रीकार न करके दीक्षा लेने को इच्छा प्रगट को । तब राम ने लवणांकुश के पुत्र मनंगलवण को राज्य का अविपति बनाया और दीक्षा लेने वन को चल दिये । ०४८ वन में जाकर चारणऋद्धिधारी अवधिज्ञानी मुनिसुव्रत से राम ने शत्रुध्न सहित मुनिदीक्षा ले लो । भूषण वस्त्र और सिर के केश उखाड़ कर फेंक दिये। राम की यह दशा देखकर खड़े हुए लोगों की भांखों से सुनों की धारा बह निकली। राम के साथ विभीषण, सुग्रीव, नल, नील, ऋन्य, बिराधिन यादि प्रनेक लोगों ने भी मुनि दीक्षा ले ली। अनेक रानियाँ गृह त्याग कर प्रार्थिका हो गई । कुछ दिनों पश्चात राम गुरु से श्राज्ञा लेकर एकलविहारी हो गये। वे पांच दिनों तक उपवास करने के बाद एक नगर में पहुँचे तो उनके सुन्दर रूप को देखकर अनेक स्त्रियाँ काम से व्याकुल होकर नाना चेष्टायें करने लगीं । राम अन्तराय समझकर लौट आये और निश्चय कर लिया कि सब में आहार के लिये नगर में नहीं जाया करूंगा । इस प्रकार चोर तपस्या करते हुए वे अनेक देशों में विहार करते हुए कोटिशिला पहुँचे और नासाग्र दृष्टि से ध्यान करने बैठ गये । स्वर्ग में सीता के जीव ने अवधिज्ञान से राम का मुनि होना देखकर बिचार किया कि राम को किस प्रकार तपस्या से विचलित करूँ जिससे वे इसी स्वर्ग में पावें और हम दोनों साथ-साथ रहें। इस तरह विचार कर वह प्रतीन्द्र राम के पास गया और सीता का रूप बनाकर अनेक हाव-भाव करके नाना प्रकार की चेष्टायें करने लगा । किन्तु रामचन्द्रजी ध्यान से विचलित नहीं हुए । क्षपक श्रेणी प्रारोहण करके उन्होंने उसी समय घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। माघ शुक्ला द्वादशी को रात्रि के पिछले पहर में वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी मन्त भगवान बन गये । चारों प्रकार के देवों और इन्द्रों ने मिलकर भगवान राम का ज्ञानोत्सव मनाया मौर भगवान 1 का उपदेश हुआ । भगवान राम अनेक देशों में बिहार करते हुए तुंगीगिरि पहुंचे और योगनिरोध कर शेष प्रघातिया कर्मों का भी नाश करके परम पद मोक्ष को प्राप्त किया। राम सिद्ध भगवान बन गये। अब उनका संसार - भ्रमण, जन्म-जरा-मृत्यु सम्रछूट गये। वे कृतकृत्य हो गये । संसार के सम्पूर्ण दुःखों से वे परे हो गये । भगवान राम के इस पावन जोवन चरित को जो भव्यजन भक्ति भाव से पढ़ते हैं और उन जैसा ही आदर्श जीवन बनाने का प्रयत्न करते हैं, वे मो एक दिन अवश्य भगवान बनेंगे । बोलो भगवान रामचन्द्र की जय !
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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