SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन, रामायण २४७ आज त ऐसा क्यों सो गया है कि जगाने पर भी नहीं जागता। अच्छा, अब समझा, तू मुझसे रूठ गया है किन्तु बता तो सही, क्यों ष्ठ गया है। इस प्रकार कहकर वे मूच्छित होकर गिर पड़े। वे बार-बार होश में आते और लक्ष्मण से नाना प्रकार की बातें करने लगते, कभी उसके मुख में भोजन देते, कभी दूध पिलाते और फिर बार-बार बेहोश हो जाते। किन्तु लक्ष्मण को एक क्षण को भी दूसरे को नहीं छूने देते । उन्हें किसी पर भी विश्वास नहीं था, न जाने ये लोग मेरे लमण को क्या कर दें। वह रूठ गया है मुझसे, उसे मैं ही मनाऊँगा। रुदन सुनकर सारा परिवार वहाँ एकत्रित हो गया। लवण और अंकुश भी माये । उन्होंने मत लक्ष्मण को देखा और मन में सोचने लगे ये लक्ष्मण नारायण थे; तीन खण्ड के अधिपति थे, कोई इनको जीतने में समर्थ नहीं था। किन्तु जब ऐसे महापुरुषों की भी मृत्यु होती है तो हम जैसों की तो बात ही क्या है। इस प्रकार विचार कर वे संसार, शरीर और भोगों से विरवत हो गये और पिता की प्राज्ञा लेकर महेन्द्र वन में पहुंचे और वहाँ अमृतस्वर मुनि के पास दीक्षा लेकर मूनि बन गये तथा घोर तपस्या करके पावागिरि से मुक्त हो गये। लक्ष्मण की मृत्यु का संवाद पाकर विभीषण, सुग्रीव आदि सभी राजा पाये। जब लक्ष्मण की लाश को छाती से चिपटाये हुये तथा निरर्थक प्रलाप करते हुए राम को देखा तो सभी बहुत दुखित हुए। तब विभीषण ने राम को समझाया-देव ! यह रोना छोड़िये । संसार का स्वभाव ही ऐसा है । जो यहाँ जन्म लेता है, वह मरता अवश्य है। मतः वीर लक्ष्मण की मत देह का संस्कार करिये। राम ण्ड मनकर ऋद्ध होकर बोले-'आप लोग अपने पिता पुत्र का संस्कार करिये। मेरा भाई लक्ष्मण तो मुझसे रूठकर सो गया है। क्रोध कम होने पर वह अपने पाप उठ बठेगा। इस तरह कहकर वे लक्ष्मण से कहने लगे-'भया लक्ष्मण, उठ । इन दुष्टों के बीच से हम कहीं अन्यत्र चले चलेंगे। ये दुष्ट विद्याधर हमारा अनिष्ट करने पर उतारू हैं। इस तरह कहकर लक्ष्मण की लाश को लेकर रामचन्द्र जी चल दिये और इधर-उधर घुमने लगे। उनकी रक्षा के लिये विद्याधर लोग भी उनके पीछे घुमने लगे। इस तरह कुछ दिन बीत गये। तो शत्रुओं ने देखा-इस समय लक्ष्मण मर गया है, राम भाई के शोक में पागल हो रहे हैं, लव और कुश दीक्षा ले गये हैं । अतः अपने पिताओं का बदला लेने का बड़ा अच्छा अवसर है। यों सोचकर इन्द्रजीत, कुम्भकणं, खरदूषण मादि के पुत्रों ने सेना सजाकर अयोध्या पर चढ़ाई कर दी। शत्रु का आक्रमण सुनकर राम लक्ष्मण की लाश को कन्धे से चिपटा कर धनुष उठा कर चल दिये। शोकसंतप्त राजा भी उनकी सहायता करने लगे। बलभद्र राम पर चारों भोर से पाई हुई विपत्ति देखकर जटायु और कृतान्तवमत्र के जीवजो चौथे स्वर्ग में देव हुए थे-उन्होंने पापस में परामर्श किया। कृतान्तवक्त्र के जीव ने जटायु के जीव से कहालक्ष्मण की मृत्यु हो गई है। हमारे पूर्वजन्म के स्वामी राम शोक में पागल हो गये हैं। शत्रु नगर पर अधिकार करने चलें हैं। ऐसे समय में हमें उनकी सहायता करनी चाहिए। तुम जटायु पक्षी थे और तुम्हें उन्होंने ही मरते समय णमोकार मंत्र सुनाया था, जिसके प्रभाव से तुम देव बने हो। मैं उनका कृतान्तबक्त्र सेनापति था । इस तरह कहकर कतान्तवक्त्र का जीव देव देत्य का रूप धारण कर शत्रुमों से युद्ध करने लगा। वह पर्वतों को उखाड़ कर शत्रुमों पर फेंकने लगा । शत्रु सेना हरकर भाग गई। शत्रों को परास्त कर उन दोनों ने राम को प्रतिबोध देने का निश्चय किया। कृतान्त बक्त्र का जीव राम के सामने वृक्ष का सूखा दूंठ बनकर खड़ा हो गया और जटायु का जीव उसे पानी से सींचने लगा । यह देखकर राम ने कहा-'अरे मूर्ख ! इस सूखे ठूठ को तू क्यों सींच रहा है। इससे क्या तुझे फल मिल जायेंगे।' उत्तर में जटाय के जीव ने कहा-'दूसरों को उपदेश देने वाले तो बहुत है, किन्तु खुद अपनी ओर कोई नहीं देखता । पाप ही बताइये, माप मुर्दे को छह माह से ढोते फिर रहे हैं, वह क्या जी जायगा।' यह सुनकर राम बोले–मूर्ख और दुष्ट आदमियों के हित की बात कहो, तो वह भी उन्हें बुरी लगती है । अतः चुप रहना ही ठीक है। इस तरह कहकर राम आगे बढ़े तो देखा एक प्रादभी पत्थर पर बीज बो रहा है और दूसरा आदमी घी के वास्ते जल और बालू मथ रहा है। राम ने उन दोनों से कहा- पागलो! कहीं पत्थर से अंकुर निकलते हैं और जल या बाल से घी निकलता है ? व्यर्थ क्यों महनन करते हो।' तब कृतान्तबक्त्र के जीव ने कहा- 'तब आप ही बताइये माप क्यों मतक शरीर को लिये फिर रहे हैं, क्या वह उससे जीवित हो जायगा ?'
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy