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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
भरकर निशुम्भ ने पुण्डरीक के ऊपर देवाधिष्ठित चक्र फका । किन्तु चक्र प्रदक्षिणा देकर पुण्डरीक को दाई भुजा पर आकर ठहर गया । तब पुण्डरीक ने चक्र लिया और उसे निशुम्भ के ऊपर चला दिया। निमिपमात्र में चक्र ने निशुम्भ का सिर उड़ा दिया।
उसो चक्र से पुण्डरीक ने अपने भाई नदिकने साथ भरत क्षेत्र के तीनों खंडों पर विजय प्राप्त की पौर नारायण कहलाया । नन्दिषण बलभद्र कहलाया। दोनों भाइयों ने प्रेमपूर्वक चिरकाल तक प्राप्त हुई राज्यलक्ष्मी का भांग किया। पुण्डराक अत्यन्त प्रारम्भ पारग्रह का धारक और रौद्र परिणामी था। उसने नरकायु का बन्ध किया और मरकर वह नरक में गया।
नन्दिषण का भ्रात-वियोग का गहरा शोक हया। इससे उन्हें ससार से वैराग्य हो गया। उन्होंने शिवपाष नामक मुनिराज के पास जाकर दीक्षा ल ली और तपश्चरण करने लगे। उनके परिणामों में निर्मलता और विशुद्धता पाती गई। उन्होंने कर्मों की मूल मौर उत्तर प्रकृतियों का नाश करके परम पद मोक्ष प्राप्त किया।
बलभद्र नन्दिषण, नारायण पुण्डरीक और प्रतिनारायण निशुम्भ नारायण-प्रतिनारायण परम्परा में छठे थे।