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________________ विंश परिच्छेद भगवान मल्लिनाथ मेरु पर्वत के पूर्व में कच्छकावती नामक देश में वीतशोक नगर था । वैश्रवण वहाँ का राजा था। एक दिन वह राजा वन का सौंदर्य देखने एवं वन-विहार के लिए गया । वन में एक विशाल वटवृक्ष था, जिसको शाखाथ प्रशाखायें विस्तृत भूमिखण्ड के ऊपर फैली हुई थीं। राजा ने उस वटवृक्ष की विशालता की पूर्व भव बड़ी प्रशंसा की । राजा प्रशंसा करता हुआ आगे बढ़ गया। लौटते समय वह फिर उसी मार्ग से वापिस श्राया । किन्तु महान् प्राश्चर्य की बात थी कि उस विशाल वटवृक्ष का कहीं पता भी न था । बल्कि उसके स्थान पर एक जला हुआ हूँठ खड़ा था। इतने ही काल में वज्र गिरने से वह वटवृक्ष जड़ तक जल गया था । उस दृश्य को देखकर राजा विचार करने लगा- जब इतने विशाल, उन्नत और बहुमूल्य वट वृक्ष की ऐसी दशा हो गई है तो इस निर्मूल मनुष्य-जीवन पर क्या विश्वास किया जा सकता है । उसे इस क्षणभंगुर जीवन से विराग हो गया । उसने अपने पुत्र को राज्य भार सौंप दिया और श्रीनाग नामक मुनिराज के निकट प्रव्रज्या धारण कर ली। उसने नाना प्रकार के तपों द्वारा श्रात्मा को निर्मल किया, ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा निरन्तर सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन किया, जिससे तीर्थकर नामकर्म का बन्ध किया । अन्त में समाधिमरण करके चौथे पराजित नामक अनुत्तर विमान में ग्रहमिन्द्र बना । मिथिला नगरी के अधिपति इक्ष्वाकुवंशी, काश्यप गोत्री महाराज कुम्भ की महारानी का नाम प्रजावती था । जब उस अहमिन्द्र की आयु में छह माह शेष रह गये, तत्र देवों ने रत्नवृष्टि आदि द्वारा महाराज के नगर में अचित्य गर्भ कल्याणक वैभव प्रगट किया। जब उस अहमिन्द्र की आयु समाप्त होने वाली थी, उस दिन चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को अश्विनी नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर में शुभफल को सूचित करने वाले महारानी ने सोलह स्वप्न देखे । बन्दीजनों के मंगल गान से महारानी की निद्रा भंग हुई। वे शय्या त्यागकर उठीं और नित्य कर्म से निवृत्त होकर मांगलिक वस्त्रालंकार धारण करके महाराज के पास पहुँची । महाराज से स्वप्नों का फल सुनकर वे बड़ी हर्षित हुई । अहमिन्द्र का जीव महारानी के गर्भ में अवतरित हुआ । देवों ने आकर भगवान के गर्भ कल्याणक का उत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा की तथा गर्भस्थ भगवान को नमस्कार किया । माता गर्भ में भगवान को धारण करके अत्यन्त सुशोभित हो रही थीं। उनका सौन्दर्य, कान्ति और लावण्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। गर्भ के कारण उन्हें कोई कष्ट या असुविधा का अनुभव नहीं होता था। इस प्रकार सुख से नौ मास बीतने पर महारानी प्रजावती ने मंगसिर सुदी एकादशी को अश्विनी नक्षत्र में पूर्ण चन्द्र के समान देदीप्यमान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। यह दिव्य बालक एक हजार ग्रा शुभ लक्षणों से युक्त था, तीन ज्ञान का धारक था । उसी समय समस्त देव और इन्द्रों ने आकर बाल भगवान को ऐरावत हाथी पर विराजमान किया और सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर के पवित्र जल से उसका अभिषेक किया । इन्द्राणी ने उसे वस्त्राभूषण पहनाये। सौधर्मेन्द्र ने बालक का नाम मल्लिनाथ रक्खा । जन्म कल्याणक १८७
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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