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________________ १६.७ सनत्कुमार चक्रवर्ती देव बोला-'अवश्य ही मैं आपके रोग का उपचार कर सकता हूं। यह रोग प्रापके शरीर में निरन्तर चूने वाला कोड़ है।' मुनिराज कहने लगे-'यह रोग तो साधारण है। मुझे तो इससे भी भयंकर रोग है । वह रोग है जन्ममरण का । यदि तुम उसका उपचार कर सकते हो तो कर दो।' सुनकर वैद्य वेषधारी देव लज्जित होकर बोला- 'मुनिनाथ ! इस रोग को तो आप ही नष्ट कर सकते हैं। तब मुनिराज मुस्कराकर कहने लगे-'भाई ! जब तुम इस रोग को नष्ट नहीं कर सकते तो फिर मुझे तुम्हारी मावश्यकता नहीं है। शरीर की व्याधि तो स्पर्श मात्र से ही दूर हो सकती है, उसके लिए वैद्य की क्या पावश्यकता है !' यों कह कर मुनिराज ने एक हाथ पर दूसरे हाथ को फेरा तो वह स्वर्ण जसा निर्मल बन गया। क्ति को देखकर अपने असली रूप को प्रगट कर देव हाथ जोडकर बोला'देव ! सौधर्मेन्द्र ने अापकी जैसी प्रशंसा की थी, मैंने आपको वैसा ही पाया।' और वह नमस्कार करके अपने स्थान को चला गया। मुनिराज सनरकुमार शुक्ल ध्यान केद्वारा कमों को नष्ट करके अनन्त सूख के धाम सिद्धालय में जा विराजे। सनत्कमार चक्रवर्ती भी भगवान धर्मनाय के तीर्थ में और धर्मनाथ एवं शान्तिनाथ के अन्तराल में हर थे।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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