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________________ सप्तदश परिच्छेद भगवान शान्तिनाथ पूर्व भव--- यहाँ भगवान शान्तिनाथ के पूर्व के तो भवों की कथा दी जा रही है। भगवान महावीर का जीव अर्थ त्रिपृष्ठ मक प्रथम नारायण था, उस समय की यह कथा है। त्रिपृष्ठ ने अपनी पुत्री ज्योतिप्रभा का विवाह रथनूपुर के राजकुमार श्रमिततेज के साथ कर दिया और अमिततेज की बहन सुतारा त्रिपृष्ठ के पुत्र श्रीविजय के साथ विवाही गई । जब त्रिपृष्ठ नारायण का देहान्त हो गया और भाई के शोक में बलभद्र विजय ने दीक्षा लेली, तब श्रीविजय पोदनपुर का राजा बना। एक दिन एक निमित्तज्ञानी ने आकर कहा कि पोदनपुर के राजा के मस्तक पर श्राज से सातवें दिन वज्र गिरेगा। सुनकर सबको चिन्ता हुई । तब मंत्रियों ने उपाय सोचा- निमित्तज्ञानी ने किसी राजा का नाम तो लिया नहीं । जो सिंहासन पर बैठा होगा, उसी पर तो बच गिरेगा, यह विचार कर उन्होंने सिंहासन पर एक यक्ष प्रतिमा रख दी। ठीक सातवें दिन यक्ष- मूर्ति पर भयंकर वख गिरा । राजा बच गया। राजा सुतारा को लेकर वन विहार के लिये गया । वे दोनों वन में बैठे हुए थे, तभी आकाश मार्ग से चमरचंचपुर का राजकुमार अशनिघोष विद्याधर उधर से निकला। उसने सुतारा को देखा तो वह उस पर मोहित हो गया। तब वह हरिण का रूप बनाकर खाया और छल से श्रीविजय को दूर ले गया। फिर वह श्रीविजय का रूप धारण करके श्राया और सुतारा से बोला- 'प्रिये ! सूर्य अस्त हो रहा है, चलो लौट चलें ।' सुतारा उसके साथ विमान में चल दी । मार्ग में प्रशनिघोष ने अपना रूप और उद्देश्य प्रगट किया। सब सुतारा जोर-जोर से विलाप करने लगी । 1 1 जब श्रीविजय वापिस ग्राया और सुतारा वहाँ नहीं मिली तो वह ग्रत्यन्त कातर हो उठा। तभी एक विद्याधर ने उसे सुतारा के अपहरण का समाचार दिया। सुनते ही वह सीधा रथनूपुर पहुँचा और श्रमिततेज से सब बातें बताई । श्रमिततेज सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और सेना लेकर प्रशनिघोष पर जा चढ़ा भयानक युद्ध हुमा । उसमें हारकर प्रशनिघोष वहाँ से भागा श्रौर नाभेयसीम पर्वत पर विजय तीर्थंकर का समवसरण देखकर उसमें जा घुसा । श्रमिततेज और श्रीविजय भी उसका पीछा करते हुए समवसरण में जा पहुंचे। किन्तु वहाँ का यह अलौकिक प्रभाव था कि न प्रशनिघोष के मन में भय के भाव थे और न श्रमिततेज और श्रीविजय के मन में क्रोध के भाव रहे। तभी शनिघोष को माता आसुरीदेवी ने सुतारा को लाकर उन दोनों को समर्पण किया और अपने अपराध की क्षमा मांगी। सबने भगवान का उपदेश सुना और सबने यथायोग्य मुनिव्रत प्रार्थिका के व्रत अथवा धायक के व्रत पुत्र के लिये । अमिततेज के प्रश्न करने पर भगवान ने सबके पूर्व भव बताते हुए कहा - तेरा जीव श्रागे होने वाले नौवें भव में पांचवा चक्रवर्ती और सोलहवाँ तीर्थंकर शान्तिनाथ होगा । सुनकर श्रमिततेज को बड़ा हर्ष हुथा । भगवान को नमस्कार कर वे लोग अपने-अपने स्थान को लौट गये । व उसकी प्रवृत्ति धर्म की भोर हो गई। वह निरन्तर दान, पूजा, व्रत, उपवास करने लगा। यद्यपि उसे अनेक
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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