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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास हस्तिनापुर पहुँचे और प्रतिहार से चक्रवर्ती के रूप-दर्शन की प्राज्ञा लेकर स्नान-गृह में पहुँचे जहाँ चक्रवर्ती तेल की मालिश करवा रहे थे। उनका अनिद्य रूप देखकर दोनों देव प्रत्यन्त विस्मित हो गये और बोले-राजन ! तुम्हारे तेज, यौवन और रूप की जैसी प्रशंसा सौधर्मेन्द्र ने की थी, यह उससे भी अधिक है। हम तुम्हारा यह रूप देखने ही स्वर्ग से यहाँ आये हैं।
चक्रवर्ती देवों द्वारा प्रशंसा सुनकर बोले-देवो! अभी तुमने क्या देखा है। आप लोग कुछ देर ठहरें। जब मैं स्नान करके वस्त्राभूषण पहनकर और इत्र फुलेल, ताम्बूल प्रादि का सेवन करके तैयार हो जाऊँ, उस समय मेरी रूप माघरी देखना।'
दोनों देव सुनकर कौतूक मन में संजोये प्रतीक्षा करने लगे। जब चक्रवर्ती स्नान, विलेपन प्रादि करके सिंहासन पर विराजमान हो गये, तब उन्होंने दोनों देवों को बुलाया। देव अत्यन्त उत्कण्ठा लिए पहुंचे और चक्री के तेज और रूप को देखकर बड़े खिन्न हुए और बोले-राजन् ! यह रूप, यौवन, बल, तेज और वैभव इन्द्र धन के समान क्षणभंगुर है । हमने वस्त्रालंकार रहित अवस्था में मापके रूप में जो सौन्दर्य, जो माधुर्यवर्ती देखा था, वह अब नहीं रहा । देवों का रूप जन्म से मृत्यु पर्यन्त एक-सा रहता है, किन्तु मनुष्यों का रूप यौवन तक बढ़ता है और यौवन के पश्चात् छीजने लगता है। इसलिए इस क्षणिक रूप का मोह और अहंकार व्यर्थ है।
देवों की बात सन्कर उपस्थित सभी लोगों को बड़ा प्राश्चर्य हुमा। तब कुछ सभ्य जन बोले-'हमें तो महाराज के रूप में पहले से कुछ भी कमी नहीं दिखाई पड़तो। न जाने माप लोगों ने पहली सुन्दरता से क्यों कमी बताई है।' सुनकर देवों ने सबको प्रतीति कराने के लिए जल से पूर्ण एक घड़ा मंगवाया। उसे सबको दिखाया। फिर एक तण द्वारा जल की एक बंद निकाल ली। फिर सबको घड़ा दिखाकर बोले-'पाप लोग बतलाइये, पहले घडे में जैसे जल भरा था, अब भी वैसे ही भरा है। क्या इसमें तुम्हें कुछ विशेषता दिखाई पड़ती है?' सबने एक स्वर से कहा-'नहीं; कुछ विशेषता दिखाई नहीं पड़तो।' तब देव कहने लगे-'महाराज! भरे हुए घड़े में से एक बूंद निकाली गई. तब भी इन्हें जल उतना ही दिखाई पड़ता है। इसी तरह हमने आपका जो रूप पहले देखा था, वह अब नहीं रहा । वह कमी हमें दिखाई पड़ती है, किन्तु इन लोगों को दिखाई नहीं पड़ती।
देव यों कह कर अपने स्वर्ग को चले गये, किन्तु चक्रवर्ती के अन्धेरे हृदय में एक प्रकाशमान ज्योति छोड़ गये । उनके मन में विचार-तरंग उठने लगी-ठीक ही तो कहते हैं ये देव । इस जगत में सब कुछ ही तो क्षणिक है, नाशवान है। मेरा यह शरीर भी तो नाशवान है, फिर इसके रूप का यह पहंकार क्यों ? मैने प्रब तक इस शरीर के लिए सब कुछ किया, अपने लिए कुछ नहीं किया। मैं अब प्रात्मा के लिए करूंगा।
मन में वैराग्य जागा तो उन्होंने तत्काल अपने पुत्र का राजतिलक किया और चारिवगुप्त मुनिराज के पास जाकर जिन-दीक्षा ले ली। वे आत्म कल्याण के मार्ग में निरन्तर बढ़ते रहे। एक बार षष्ठोपवास के बाद वे ग्राहार के लिए नगर में गये । वहाँ देवदत्त नामक राजा ने उन्हें प्राहार कराया। मुनि सनत्कुमार ने माहार लेकर फिर षष्ठोपवास ले लिया। किन्तु वह आहार इतना प्रकृति-बिरुद्ध था कि उससे शरीर में अनेक भयंकर रोग उत्पन्न हो गये । यहाँ तक कि उनके शरीर में कुष्ठ हो गया। शरीर में दुर्गन्ध पाने लगी। किन्तु मुनिराज का ध्यान एक क्षण के लिए कभी शरीर की मोर नहीं गया। उन्हें औषध ऋद्धि प्राप्त थी, किन्तु कभी रोग का प्रतीकार नहीं किया।
एक दिन पुनः इन्द्र सौधर्म सभा में धर्मप्रेमवश सनत्कुमार मुनिराज की प्रशंसा करते हुए कहने लगे-- धन्य हैं सनत्कुमार मुनि, जिन्होंने षट् खण्ट पृथ्वी का साम्राज्य तृण के समान असार जानकर त्याग दिया और तप का पाराधन करते हुए पांच प्रकार के चारित्र का दृढ़तापूर्वक पालन कर रहे हैं।'
___ इन्द्र द्वारा यह प्रशंसा सुनकर मदनकेतु नामक एक देव सनत्कुमार मुनिराज की परीक्षा लेने वैद्य का वेष धारण करके उस स्थान पर पहुंचा जहाँ मुनिराज तपस्या कर रहे थे। वहाँ पाकर वह जोर जोर से कहने लगामैं प्रसिद्ध वैद्य हूँ, मृत्युंजय मेरा नाम है। प्रत्येक रोग की औषधि मेरे पास है । कोई उपचार करा लो।
मुनिराज बोले-'तुम वैद्य हो, यह तो बड़ा अच्छा है। मुझे बड़ा भयंकर रोग है । क्या तुम उसका भी उपचार कर सकते हो?'