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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
सोमशर्मा ने गणधरदेव के कथनानुसार किया।
मरकर वह चतुर्थ स्वर्ग में महा विभूतिवान् देव हुआ । आयु पूर्ण होने पर विजय नगर के सम्राट् मनोकुम्भ का पुत्र अरिजय हुआ। यह राजकुमार अत्यन्त रूपवान, गुणवान और बलवान था और यह विपुलाचल पर भगवान महावीर के दर्शनों के लिये भी गया था ।
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सुप्रभ बलभद्र, पुरुषोत्तम नारायण और
मधुसूदन प्रतिनारायण
भगवान अनन्तनाथ के समय में चौथे बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण हुए।
निदान-बन्ध
पोदनपुर नरेश वसुषेण कं पांच सौ रानियां थीं। उनमें नन्दा पटरानी थी। महाराज उसके प्रति प्रत्यन्त अनुरक्त थे । मलय देश का स्वामी चण्डशासन वसुषेण का मित्र था। वह अपने मित्र से मिलने के लिये पोदनपुर माया 1. एक दिन नन्दा के ऊपर उसकी दृष्टि पड़ गई। उसे देखते ही वह नन्दा के ऊपर मोहित हो गया और उसका अपहरण करके ले गया । वसुषेण चन्द्रशासन के मुकाविले अपने माप को असमर्थ पाता था । अतः वह मन मसोस कर रह गया; किन्तु वह नन्दा को न भूल सका । तब उसे विवेक जागृत हुआ। वह श्रेय नामक गणधर के पास जाकर दीक्षित हो गया। उसने घोर तप किया और यह निदान किया कि यदि मेरी इस तपस्या का कुछ फल है तो मैं ऐसा राजा बनूं जिसको प्राशा का उल्लंघन कोई न कर सके। वह सन्यास मरण कर सहस्रार स्वर्ग में महा विभूतिसम्पन्न देव हुआ ।
जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में नन्दन नामक एक नगर था। उसका अधिपति महाबल अत्यन्त प्रतापी और प्रजावत्सल राजा था। वह बड़ा दानी और दीनवत्सल था। एक दिन उसे भोगों से अरुचि हो गई। उसने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर प्रजापाल नामक अर्हन्त के समीप संयम धारण कर लिया और तप करने लगा । अन्त में सन्यास धारण कर मरण को प्राप्त हुआ और सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ ।
बलभद्र, नारायण,
और प्रतिनारायण - द्वारावती नगर के स्वामी राजा सोमप्रभ को रानी जयवन्ती के गर्भ में सहबार स्वर्ग से महाबल का जीव भायु पूर्ण होने पर बाया । उत्पन्न होने पर उसका नाम सुप्रभ रक्खा गया । वह सर्वप्रिय था। उसका वर्ण गौर था ।
उसी राजा की दूसरी रानी के गर्भ में वसुषेण का जीव माया । उत्पन्न होने पर उसका नाम पुरुषोत्तम रक्खा गया । इसका वर्ण कृष्ण था ।
दोनों भाइयों में अत्यन्त स्नेह था । ज्योतिषियों ने बताया था कि ये दोनों भाई बलभद्र भौर नारायण हैं और ये भरत क्षेत्र के भावे भाग पर शासन करेंगे। सब राजा इनके माशानुवर्ती होंगे ।
चण्डशासन का जीव विभिन्न योनियों में भटकता हुया काशी देश की वाराणसी नगरी का स्वामी मधुसूदन नाम का राजा हुआ। वह प्रचण्ड तेज का धारक था, शत्रु इसके नाम से ही भयभीत हो जाते थे। एक बार नारद घूमते हुए वाराणसी में उसके दरबार में पहुँचे । मधुसूदन ने उनकी अभ्यर्थना की और बैठने के लिये उच्चासन दिया। दोनों में इधर-उधर को बातचीत होने लगी । प्रसंगवश नारद ने सुप्रभ और पुरुषोत्तम के वैभव की चर्चा की। सुनते ही मसहिष्णु मधुसूदन ईर्ष्या से जल उठा। उसने अहंकारपूर्वक उन दोनों राजकुमारों को श्रादेश भेजा कि तुम लोग मेरे लिये हाथी, रत्न आदि कर स्वरूप भेजो ।